गुरुवार, 21 जुलाई 2016

।।बन्धन (ग्रन्थियाँ)मानसिक ।।

।।बन्धन (ग्रन्थियाँ)मानसिक ।।
"मात्र शिव ही सहज है"....
हमारा सारा जीवन बँधन (ग्रंथियों) को खोलने और या सुलझाने में ही व्यतीत होता रहता है।इन ग्रन्थियों का  निर्माण कसम खाने,वचन या संकल्प लेंने,प्रेम,ममता,
लालच,जलन,द्वेष इत्यादि भावो से होता है।और जब तक ये ग्रन्थियां खुल ना जाए या सुलझ ना जाए,तब तक आत्मा आनंदित नहीं होता।किन्तु आनंद भी एक ग्रंथि ही है इसी लिए यह कहना उचित होगा की तब तक आत्मा "सहज"नहीं होता।सहज हुए बिना ईश्वर की प्राप्ति मुमकिन नहीं है क्योकि ईश्वर सहज है सामान्य है।सब के लिए है।
जब किसी शिशु का जन्म होता है तब उसे भगवान् का रूप कहा जाता है क्योकि वह सहज सामान्य एवम् ग्रंथियों से मुक्त होता है।उस समय उस शिशु में ग्रंथियों का निर्माण नहीं होता।क्योकि ग्रंथियों का निर्माण ही मन कहलाता है और मन भीतर नहीं होता ,आता और जाता रहता है ।
समय बितने के साथ-साथ ज्ञान एवम् संस्कारो के कारण ग्रंथियों का निर्माण शिशु के मन में होता जाता है।सबसे बड़ी ग्रंथि का जन्म तो शिशु के जन्म से पहले ही निर्माण हो चुका होता है जैसे हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसाई,जैन,और उसके बाद ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शुद्र।अच्छा-बुरा,सुख-दुःख,पाप-पुण्य,कम-ज्यादा,काल-गोरा,मोटा-पतला,खट्टा-मिट्ठा ,इस प्रकार भेद मानने मात्र से ग्रंथियों का मानसिक निर्माण होते रहता है।मानसिक ग्रन्थियों के ही सामान शारीरिक ग्रन्थियां भी होती है जिनसे "हार्मोन्स"का लगातार रिसाव होता रहता है जिन्हें कुण्डलिनी साधना में "चक्रों"का नाम दिया जाता है।किन्तु हमारा विषय मानसिक है।मानसिक स्थिति का शारीरिक ग्रन्थियों पर पूर्ण असर पड़ता है ।मन से इन ग्रन्थियों का नियंत्रण किया जा सकता है।
इन ग्रंथियों का मूल ,या इन ग्रंथियो का जो मुख्य (राजा) होता है "ग्रंथिराज" नाम दिया जा सकता है किन्तु इनका शास्त्रीय एवम् दैविक नाम पहले से निश्चित है।ये ग्रंथि मूल है एवम् प्रत्यक्ष भी।ये बँध हम हमेशा लगाए रखते है ।जाने -अनजाने दोनों अवस्था में ।इस बंध से मुक्ति मूत्र त्याग की अवस्था में प्राप्त होता है जो की शारीरिक अनुभूति होती है।इस अवस्था ने हम सहज होते है एवम् बंधन से मुक्त होते है ।किन्तु मूत्र त्याग के बाद ये बँध पुनः लगजाता है।इस बँध को अपनी इच्छानुसार नियंत्रण करने से आध्यात्मिक,शारीरिक एवम् मानसिक सुखो की प्राप्ति होती है "अश्वनी मुद्रा" के नाम से योग में प्रचलित है।
(गुदाद्वारा को बार-बार सिकोड़ने और फैलाने की क्रिया को ही अश्विनी मुद्रा कहते हैं। अश्विनी मुद्रा का अर्थ है "अश्व यानि घोड़े की तरह करना". घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है. इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है. यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं. विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं.।)
इस अश्विनी का संचालन दो प्रकार से होता है बार-बार मुद्रा लगाने से शक्ति का जन्म होता है और स्मरण रहे की शिव शक्ति से पर है सहज है।जितना बँध ज्यादा लगायेगे शक्ति ऊर्जा का निर्माण होता जाएगा और "शिवत्व"खोता जाएगा।क्योकि शिव एवम् शक्ति दो विषम धारा या मानसिकता है जिसे इनके वाहनों के विपरीत स्वभाव से दर्शाया जाता है।इस बँध को जितना कम लगाया जाएगा उतना स्वभाव शांत व सकारात्मक होता जाएगा।और जितना ज्यादा लगाया जाएगा उतना मन अशांत एवम् नकारात्मक होगा।
काम,क्रोध,मोह एवम् लोभ जैसी अवस्था में ये बँध अपने आप लग जाता है।किन्तु "भय" एवम् "प्रेम"की अवस्था में ये बँध बहुत तेज एवम् बहुत समय तक मानसिक
असर डालता है।इस "अश्वनी"के दो सुपुत्र है जिन्हें "अश्वनिकुमार"कहा जाता है इनका कार्य भी अश्विनी के समान खुलना और बंद होना ही है।जो की मन के द्वार पाल है ।सजगता इनका गुण है।इनकी शरण में रह कर त्राटक की क्रिया द्वारा मन को साधने की विद्या प्राप्त की जाती है।क्योकि हमारी दो आँखे ही "अश्वीनिकुमार" है।
मन का सहज या असहज होना ही साधना का विषय है।जो सहज है वह शिव है जो असहज है वही शिवा है।
इन बन्धनों से मुक्त हुए बिना,सहज हुए बिना उस परमात्मा तक का मार्ग प्रशस्त नहीं होता।

इस पोस्ट को ध्यान से पढ़े ज्ञान से नहीं

""जयश्री महाकाल""
(व्यक्तिगत अनुभूति एवं विचार )
******राहुलनाथ********
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