गुरुवार, 21 जुलाई 2016

॥महामायाविनी का महामायाजाल॥

॥महामायाविनी का महामायाजाल॥व्यक्तिगत अनुभति
जिव जैसे जैसे बड़ा होता जाता है उसकी अनुभूतियों का स्तर भी विस्तृत होता जाता है और उन अनुभूतियों के साथ साथ उसकी भोग की कामना भी निरंतर बढ़ती जाती है एवम् उसका पूर्ण जीवन उन भोगो की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने में बीत जाता है।इस संसार का सबसे बुद्धिमान एवम् चतुर जिव मानव भी कभी
यह नहीं विचार कर पाता की वो कौन है?
वो कहा से आया है?
और उसे कहा जाना है?
और वह सारे जीवन काल को
अपने अहंकार को संतुष्ट करने में व्यतीत कर देता है।और एक दिन वह शक्तिहीन हो कर इस संसार से चला जाता है इस समय में उसका अहंकार भी उसका साथ नहीं देता और ना ही उसके काम आता है।
शिशु जन्मोपरांत इस लुभावने जगत को देखता है और उसी पल से जगत को भोगने की कामनाओ में डूब जाता है सर्वप्रथम वह माता के गर्भ में उत्पन्न हो कर माता का रक्त पिकर पोषण पाता है फिर अपने शरीर को विस्तृत कर माता को वेदना दे कर बाहर आता है फिर दुग्ध रूपी श्वेत रक्त का स्तन पान की कामना तक सिमित रहता है।पूनःखिलौने एवम् भोजन की वस्तुओ की कामना करता है
और जैसे जैसे आयु में वृद्धि होती जाती है एवम् जानकारियाँ बढ़ती जाती है
वैसे वैसे उसकी कामनाओ एवम् इच्छाओ का संसार भी बड़ा होने लगता है ये क्रम जब तक मृत्यु ना आ जाए चलते रहता है।
संसार के सभी जिव के साथ यही नियम लाघु होता रहता है।
वो एक पल ले भी लिए ये नहीं सोचता वो कौन है?वो कहा से आया है?
वो कहा जाने वाला है?उसके जीवन का उद्देश्य क्या है?
जन्म से ही आँखों के सामने एक पट्टी बाँध कर धृतराष्ट्र की अवस्था में पैदा होने वाला मानव हर समय एक नशे की अवस्था में ही जीवन यापन करता रहता है।इच्छाओ की पूर्ति,अहंकार को संतुष्ट करने का नशा कभी नहीं उतरता ।और इस नशे को पूरा करने के लिए मनुष्य संसार का हर वो कार्य कर सकता है जो घातक से घातक या चतुर से चतुर जानवर भी नहीं कर सकता!
इस संसार की सभी वस्तुओ तत्वों के साथ छेड़ छाड़ करने वाला मानव अपने आपको बुद्धिमान कहता है जबकि इसिने ही संसार की प्राकृतिक सुविधाओ में लगातार विष ही मिलाया है।चाहे वो जल हो वायु हो या आकाश!
किन्तु वो आज भी इस महामाया योगमाया प्रकृति को पूर्ण तक नहीं समझ पाया।।क्योकि यह प्रकृति मानव को जिस रूप में दिखाई देती है वैसी हाथी को नहीं दिखाई देती ।जैसे बन्दर को दिखाई देती है वैसे मच्छर को नहीं दिखाई देती।
सब की अनुभूतियाँ अलग अलग होती है।यह ब्रह्माण्ड सब को अलग अलग दिखाई देता है किन्तु सब को लगता है की दूसरे को भी वैसे ही दीखता होगा जैसे उसे दिखाई देता है।सभी जिव अपनी अपनी इन्द्रियों की शक्ति के अनुसार अलग अलग अनुभूतियाँ प्राप्त कर संकेत मस्तिष्क को भेजते है और यही धोखा होता है।
जैसे अँधेरे में रस्सी को देख कर यह सर्प भी समझ लेता है उसी प्रकार इसे लगातार ब्रह्म होते रहते है।और यदि हर व्यक्ति अपनी सही अनुभूतियों को यदि समाज में उजागर कर दे तो समाज का एक बड़ा वर्ग पागल खाने की शोभा बढ़ाते दिखाई देगा।कारण है की
हमारी इंद्रिया एक निश्चित फ्रीक्वेंसी तक ही संकेत ग्रहण कर सकती है।इससे कम या ज्यादा की जानकारी वह नहीं प्रदान कर सकती ।इसका मतलब ये नहीं है की इससे निम्न या उच्च की फ्रीक्वेंसी नहीं होती।इसी कारण ऋषि मुनियो ने इन्द्रियों को ठग कहा है ।ये हमें कभी भी सही ज्ञान नहीं देती अधिकतर ज्ञान तो हम कलपना शक्ति से ही प्राप्त करते है।ये इंद्रिया हमें मित्र दिखती है किन्तु होती नहीं है।
धोखा देती रही है ये ,इनपे विशवास करना मृतयु दंड के सामान ही है।
इस महामाया प्रकृति के समक्ष बड़े बड़े ज्ञानियो साधू संतो यहाँ तक की भगवान की भी मती भ्रष्ट हो जाती है और वे भी इसके आकर्षण के पाश में बन्ध जाते है।
इस संसार में जो कुछ भी हम सुनते है वो सब सत्य ही होता है किन्तु हमारी इन्द्रियों की सीमितता के कारण उसको साबित करने के साक्ष्य हम नहीं जुटा पाते है।और उसे गलत कह देते है ।किन्तु वो गलत नहीं होता ।जिसे हम समझ नहीं पाते
हम उसे रहस्य की श्रेणी में खड़ा कर देते है और अलौकिक समझने लगते है ।।
सारी सृष्टि इस महामाया का विस्तार ही है ।
किन्तु अभ्यास एवम् संयम के द्वारा इसे समझने का हम प्रयास कर सकते है
त्राटक द्वारा एवम् ध्यान के द्वारा दूरदर्शिता ,कानो के समिकरण पर संयम रख कर दूर श्रवण की विधि हम जान सकते है।
इसमें ध्यान की पराम् आवश्यकता होती है।ध्यान को आँखों में लगाने त्राटक,ध्यान को कान में लगाने से दूरश्रवण,ध्यान को नाक में लगाने से अलग अलग खुशबुओं में भेद कर पहचान सकते है।ध्यानको कंठ में लगाने से अलग अलग गीत ताल सुर इत्यादि का हम निर्माण कर सकते है।तो महत्वपूर्ण विधि ध्यान ही है।इस ध्यान को बाहर लगाने से बाह्य वस्तुओ का ज्ञान एवम् भीतर लगाने से भीतर की वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
अभी कुछ वर्ष पहले अरबो खरबो रुपयो का खर्चा करके नासा ने ये इस बात पे मुहर लगा दी की मंगल लाल रंग का ग्रह है और मंगल की पृथ्वी से दुरी का भी पता लगा लिया है ।सारे संसार ने इस कार्य की बहुत बहुत प्रशंसा की ।नासा यह सब कर पाया इसके लिए उसे वर्षो तक मेहनत करनी पड़ी एवम् वहां तक पहुचने के लिए बहुत सी नविन चीजो का उसे निर्माण भी करना पड़ा।।।।किन्तु ये तो भारतीय शास्त्रो में पहले से ही लिखा हुआ था ।की मंगल लाल रंग का ग्रह है और इसी कारण वष उसका नाम भी अंगारक रखा गया था।फिलहाल ये जानकारी मात्र 60 रु की किताब में भी दर्ज मिल जाती है ।तो फिर उन ऋषियो ने ये कैसा जाना?
क्या उन्होंने भी कोई यान का निर्माण किया था ,नहीं ।।।
उन्होंने ध्यान की शक्ति के द्वारा ही इस क्रिया को संपन्न किया था ।
ध्यान की परिपक्व अवस्था में दुरी कोई मायने नहीं रखती।।।
इस महामाया ठगनी को समझने के लिए ध्यान ही एक माध्यम है जिसके द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है।इस ध्यान के द्वारा ही सभी लौकिक एवम् अलौकिक शक्तितो,विद्याओ का रहस्योद्घाटन किया गया है।
भारतीय ग्रंथो में इन्ही विधियों को रूपको एवम् उपमा अलंकार के माध्यम से समझाया गया है और कालान्तर में जिन्हें इनका ज्ञान नहीं था वे उसे उसी रूप में पूजने लगे।।।
किन्तु सत्य ये नहीं है ।।।
सत्य कुछ और ही है।किन्तु सत्य में भी एक रहस्य है और वो ये की
"सत्य देखने की नहीं सुनने की अवस्था है,सत्य देखा नहीं जा सकता सत्य सूना जा सकता है"
इस महामाया ठगनी के ही ना ना प्रकार के रूप गोचर होते रहते है जिन्हें अलग अलग देवियो के नाम से जाना जाता है।मुख्यतह 10 रूपो में।और इन दस रूपो में से भी प्रत्येक के दस रूप बनते है एवम् इन दस में से भी प्रत्येक के दस रूप इस प्रकार से ,इस महामाया के करोडो रूपो का निर्माण हो जाता है ।इन सब का नियंत्रण ध्यान से ही किया जाता है और ये ध्यान ही महादेव है जो एक मात्र पुरुष है जो सबका नियंत्रण करता है।इस रहस्य को समझने से लाखो काली,दुर्गा,गायत्री,सावित्री के दर्शन होने लगते है और जो इन सब का नियंत्रण करता है
स्वयम महादेव का भी ,वही जिव विष्णु कहलाता है।।
ये विष्णु कोई और नहीं है ,आपही है जो हर घट घट में व्यापक है।हम सब में निवास करता है।।।यही विष्णु हम सब के भीतर प्राणों को लेने और छोडने का कार्य करता है।जिससे ये शरीर रूपी ब्रह्माण्ड कार्यान्वित होता रहता है।किन्तु एक ध्यानी इस विष्णु एवम् महादेव को भी ध्यान एवम् योग की शक्ति से रोक सकता है।
क्योकि श्वास के द्वारा ही इस शरिर रूपी सृस्टि का पालन होता है और श्वास ही रोक ली जाए तो ये शरीर रूपी द्वारिका नगरी अपने राजा,रानी देवता एवं द्वारपालों के साथ समुद्र में विलीन हो जाती है।अर्थात स्मशान में समा जाती है।मृत्यु हो जाती है।
मैं ही सत्य हु,सत्य भी मैं ही हूँ ।।
शिव भी मैं और शिवा भी मैं ही हूँ.....
जिव भी मैं और जीवन का दाता ब्रह्मा भी मैं ही हूँ...
मेरे से कोई अलग नहीं,तू भी मैं और....
मैं ही तु भी हूँ.....

""जयश्री महाकाल""
(व्यक्तिगत अनुभूति एवं विचार )
******राहुलनाथ********
{आपका मित्र,सालाहकार एवम् ज्योतिष}
भिलाई,छत्तीसगढ़+917489716795,+919827374074(whatsapp)
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(©कॉपी राइट एक्ट 1957)

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