शनिवार, 24 जून 2017

52 बावन वीर एवम वीर कंगन साधना

52 बावन वीर एवम वीर कंगन साधना
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वीर मूल रूप से भैरवी के अनुयायी होते है और भगवान भैरव की उपासना करके उनके गण कहलाते है जैसे भगवान भैरव महादेव महाकाल के गण है उसी प्रकार वीर भैरव के गण कहलाते है।भैरव भगवती काली के पुत्र है इसी कारण वीर देवी महाकाली के दूत भी कहलाते है ,जब भी आप शत्रु के सर्वनाश के लिए महाकाली का कोई अनुष्ठान करते है तो सर्वप्रथम शत्रु पर वीर चलाकर एक बार चेतावनी देने का विधान है इस चेतावनी के बाद ही काली की शक्ति शत्रु पे कार्य करती है।
वीर साधना का विधान बहुत ही गुप्त है वीर साधना 61 दिन तक एक कमरे में बंद हो कर करनी पड़ती है जहां साधक का मुख 61 दिन तक गुरु के अलावा कोई नही देख सकता ,साधना काल मे महाकाली एवं भैरव-हनुमान की प्रतिमा के अलावा 52 पुतलियों की आवश्यकता होती है।काला वस्त्र एवं आसान का उपयोग होता है इस साधना काल ने 61 दिन ,दाँतो को साफ करना,बाल काटना,बालो में तेल लगाना,नहाना,खाना खाने के बाद मुख शोधन करना,कपडे बदलना या धोना,नाखून-बाल काटना,नाक-कान साफ करना,झूठे बर्तनों को धोना,जिन बर्तनों में भोजन सामग्री बनाई जाती है उस बर्तन को धोना इत्यादि सब मना होता है।यह साधना स्मशान में ज्यादा फलीभूत होती है किंतु स्मशान में 61 दिन निरंतर साधना करना सामान्य साधको के लिए सुलभ नही होता ऐसे में साधको को स्मशान से मिट्टी या भस्म (नियम विधि)पूर्वक लाकर कमरे में स्थापित कर ,कमरे को स्मशान समझते हुए 61 दिन करनी होती है।इस साधना का एक गुप्त मंत्र है जिसमे 52 विरो के नाम का सम्बोधन किया जाता है उनका आह्वाहन किया जाता है ये साधना बहुत दुष्कर है सभी विरो का भोजन अलग अलग होता है और साधक को ये भोग स्वंय बनाकर देवताओ को अर्पित करना होता है।1994 में गुरुदेव के शिव शंकर नाथ जी के सानिध्य में इस साधना को मैंने किया था किंतु ये साधना उस समय सम्पूर्ण नही हो पाई थी जिस कमरे पे साधना की जा रही थी उस स्थान कमरे के पास रहने वाली दो कन्याओं पे अचानक देवियो का आवेश आ गया था और वो दोनों कन्याये पूजा स्थान पे पहुँच जाती थी और गालियां देती हुई कमरे के दरवाजों पे पत्थर इटे मारना शुरू कर देती थी इससे स्थानीय लोग भयभीत हो गए थे जिससे 43 दिन की साधना के उपरांत साधना को ठंडा करना पड़ा था कालांतर में गुरुदेव के समाधि लेने के बाद ,स्वप्न में गुरुदेव का आदेश मिलने पर 2007 में यह साधना भिलाई से 43 किलोमीटर दूर शिवनाथ नदी के तट पर सम्पन्न की गई थी।जिसमे सफलता प्राप्त हुई थी किन्तु बार-बार विरो को कार्य देने में सक्षम ना होने के कारण मैंने उनका विसर्जन इस वचन के साथ कर दिया था कि जब भी मैं उनका आह्वाहन करू उनको आना होगा ।
कुछ लोग इस साधना द्वारा वीर कंगन एवं वीर मुद्रिका का निर्माण कर विरो को कंगन या मुद्रिका में स्थान दे देते है किंतु इस कंगन को सम्हालना सबके बस की बात नही होती है।इन साधनाओ को करने के बाद मैंने जाना कि इन साधनाओ से लाभ कम समाज की हानि ज्यादा है क्योंकि यहां सहायता के लिए साधना कौन करता है सभी का कोई ना कोई स्वार्थ ही होता है।
चामुंडा जी के सेवक इस साधना को आसानी से कर सकते है।
ये पूर्ण रूप से तांत्रिक शाक्त मत की साधना है तांत्रिको को इसमे सफलता प्राप्त होती है।इस साधना को करने के पूर्व साधक को गुरु के शरण मे रहकर शक्तिशाली शरीर रक्षा मंत्र को सिद्ध करना होता है इस शरीर रक्षा कि सिद्धि पहले ही 43 दिन में कर लेनी चाहिए ,शरीर रक्षा के लिए मैंने गुरु मुख से प्राप्त "साबर लक्ष्मण रेखा मंत्र" का प्रयोग किया था जो लक्ष्मण जी ने सीता जी की सुरक्षा के लिए उपयोग किया था जिसको तोड़ पाना महाप्रतापी रावण के बस में भी नही था।इस साधना को एक बार सिद्ध करने के बाद समाज के कल्याणार्थ बहुत से वीर कंगन या मुद्रिका बनाई जा सकती है इसमें सामग्री कोई ज्यादा मूल्यवान नही होती किन्तु मूल्य 61 दिन के समय एवं जोखिम का हो सकता है।
साधक चाहे तो गुरु आदेश से एक-एक वीर की 7 दिवसीय साधना भी कर के भी सिद्धि प्राप्त कर सकता है किंतु ऐसे में सवा वर्ष का समय लगता है और सवा वर्ष नियम पालन करना सबके बस की बात नही होती।

52 विरो के नाम
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स्थान एवं जाती भेद के अनुसार इनके नामो में भेद हो सकता है।
01. क्षेत्रपाल वीर
02. कपिल वीर
03. बटुक वीर
04. नृसिंह वीर
05. गोपाल वीर
06. भैरव वीर
07. गरूढ़ वीर
08. महाकाल वीर
09. काल वीर
10. स्वर्ण वीर 
11. रक्तस्वर्ण वीर
12. देवसेन वीर
13. घंटापथ वीर 
14....रुद्रवीर
15. तेरासंघ वीर 
16. वरुण वीर 
17. कंधर्व वीर
18. हंस वीर 
19. लौन्कडिया वीर
20. वहि वीर 
21. प्रियमित्र वीर 
22. कारु वीर
23. अदृश्य वीर 
24. वल्लभ वीर
25. वज्र वीर 
26. महाकाली वीर   
27. महालाभ वीर 
28. तुंगभद्र वीर 
29. विद्याधर वीर
30. घंटाकर्ण वीर 
31. बैद्यनाथ वीर 
32. विभीषण वीर
33. फाहेतक वीर
34. पितृ वीर
35. खड्‍ग वीर 
36. नाघस्ट वीर 
37. प्रदुम्न वीर
38. श्मशान वीर 
39...भरुदग वीर 
40. काकेलेकर वीर 
41. कंफिलाभ वीर
42. अस्थिमुख वीर
43. रेतोवेद्य वीर 
44. नकुल वीर 
45. शौनक वीर 
46. कालमुख 
47. भूतबैरव वीर 
48. पैशाच वीर 
49. त्रिमुख वीर 
50. डचक वीर 
51. अट्टलाद वीर
52. वासमित्र वीर  
(इस पोस्ट में 52 विरो का नामो का संकलन किया गया है)

   व्यक्तिगत अनुभूति एवं।विचार©₂₀₁₇
।। महाकाल राहुलनाथ।।™
भिलाई,छत्तीसगढ़,भारत
पेज लिंक:-https://www.facebook.com/rahulnathosgybhilai/
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चेतावनी:-इस लेख में वर्णित सभी नियम ,सूत्र एवं व्याख्याए,एवं तथ्य हमारी निजी अनुभूतियो के स्तर पर है अतः हमारी मौलिक संपत्ति है।विश्व में कही भी,किसी भी भाषा में ये इस रूप में उपलब्ध नहीं है|लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे । तंत्र-मंत्रादि की जटिल एवं पूर्ण विश्वास से  साधना-सिद्धि गुरु मार्गदर्शन में होती है अतः बिना गुरु के निर्देशन के साधनाए ना करे।बिना लेखक की लिखितअनुमति के लेख के किसी भी अंश का कही भी प्रकाषित करना वर्जित है।न्यायलय क्षेत्र दुर्ग छत्तीसगढ़(©कॉपी राइट एक्ट 1957)
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बुधवार, 21 जून 2017

चंडी देवी कवचं

चंडी देवी कवचं

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ॐ नमश्चंडिकायै

न्यासः
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अस्य श्री चंडी कवचस्य । ब्रह्मा ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः ।चामुंडा देवता । अंगन्यासोक्त मातरो बीजम् । नवावरणो मंत्रशक्तिः । दिग्बंध देवताः तत्वम् । श्री जगदंबा प्रीत्यर्थे सप्तशती पाठांगत्वेन जपे विनियोगः ॥

ॐ नमश्चंडिकायै

मार्कंडेय उवाच ।
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ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच ।
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अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥ २ ॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चंद्रघंटेति कूष्मांडेति चतुर्थकम् ॥ ३ ॥

पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥ ४ ॥

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥ ५ ॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ ६ ॥

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ॥ ७ ॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।
ये त्वां स्मरंति देवेशि रक्षसे तान्नसंशयः ॥ ८ ॥

प्रेतसंस्था तु चामुंडा वाराही महिषासना ।
ऐंद्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥ ९ ॥

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ॥ १० ॥

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥ ११ ॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ।
नानाभरणाशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥ १२ ॥

दृश्यंते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ।
शंखं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ॥ १३ ॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।
कुंतायुधं त्रिशूलं च शार्ंगमायुधमुत्तमम् ॥ १४ ॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।
धारयंत्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥ १५ ॥

नमस्ते‌உस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥ १६ ॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामैंद्री आग्नेय्यामग्निदेवता ॥ १७ ॥

दक्षिणे‌உवतु वाराही नैरृत्यां खड्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ॥ १८ ॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ॥ १९ ॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुंडा शववाहना ।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ॥ २० ॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ २१ ॥

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघंटा च नासिके ॥ २२ ॥

शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी ॥ २३ ॥

नासिकायां सुगंधा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ॥ २४ ॥

दंतान् रक्षतु कौमारी कंठदेशे तु चंडिका ।
घंटिकां चित्रघंटा च महामाया च तालुके ॥ २५ ॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमंगला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥ २६ ॥

नीलग्रीवा बहिः कंठे नलिकां नलकूबरी ।
स्कंधयोः खड्गिनी रक्षेद्बाहू मे वज्रधारिणी ॥ २७ ॥

हस्तयोर्दंडिनी रक्षेदंबिका चांगुलीषु च ।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥ २८ ॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ २९ ॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद्गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥ ३० ॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विंध्यवासिनी ।
जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥ ३१ ॥

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥ ३२ ॥

नखान् दंष्ट्रकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा ॥ ३३ ॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अंत्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ ३४ ॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥ ३५ ॥

शुक्रं ब्रह्माणि! मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ ३६ ॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ॥ ३७ ॥

रसे रूपे च गंधे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥ ३८ ॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी ॥ ३९ ॥

गोत्रमिंद्राणि! मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चंडिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥ ४० ॥

पंथानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ॥ ४१ ॥

रक्षाहीनं तु यत्-स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि! जयंती पापनाशिनी ॥ ४२ ॥

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ॥ ४३ ॥

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः ।
यं यं चिंतयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ॥ ४४ ॥

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ।
निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः ॥ ४५ ॥

त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ।
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ॥ ४६ ॥

यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसंध्यं श्रद्धयान्वितः ।
दैवीकला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः । ४७ ॥

जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ।
नश्यंति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ॥ ४८ ॥

स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ।
अभिचाराणि सर्वाणि मंत्रयंत्राणि भूतले ॥ ४९ ॥

भूचराः खेचराश्चैव जुलजाश्चोपदेशिकाः ।
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ॥ ५० ॥

अंतरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ।
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगंधर्वराक्षसाः ॥ ५१ ॥

ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्मांडा भैरवादयः ।
नश्यंति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ॥ ५२ ॥

मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ।
यशसा वर्धते सो‌உपि कीर्तिमंडितभूतले ॥ ५३ ॥

जपेत्सप्तशतीं चंडीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।
यावद्भूमंडलं धत्ते सशैलवनकाननम् ॥ ५४ ॥

तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी ।
देहांते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् ॥ ५५ ॥

प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ।
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ ५६ ॥

॥ इति वाराहपुराणे हरिहरब्रह्म विरचितं देव्याः कवचं संपूर्णम् ॥

देवीकवचं हिंदी भावार्थ
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महर्षि मार्कण्डेयजी बोले – हे पितामह! संसार में जो गुप्त हो और जो मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करता हो और जो आपने आज तक किसी को बताया ना हो, वह कवच मुझे बताइए। श्री ब्रह्माजी कहने लगे – अत्यन्त गुप्त व सब प्राणियों की भलाई करने वाला कवच मुझसे सुनो, प्रथम शैलपुत्री, दूसरी ब्रह्मचारिणी, तीसरी चन्द्रघंटा, चौथी कूष्माण्डा, पाँचवीं स्कन्दमाता। छठी कात्यायनी, सातवीं कालरात्री, आठवीं महा गौरी, नवीं सिद्धि दात्री यह देवी की नौ मूर्त्तियाँ, “नवदुर्गा” कहलाती हैं। आग में जलता हुआ, रण में शत्रु से घिरा हुआ, विषम संकट में फँसा हुआ मनुष्य यदि दुर्गा के नाम का स्मरण करे तो उसको कभी भी हानि नहीं होती। रण में उसके लिए कुछ भी आपत्ति नहीं और ना उसे किसी प्रकार का दुख या डर ही होता है।

हे देवी! जिसने श्रद्धा पूर्वक तुम्हारा स्मरण किया है उसकी वृद्धि होती है। और जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करने वाली हो। चामुण्डा प्रेत पर, वाराही भैंसे पर, रौद्री हाथी पर, वैष्णवी गरुड़ पर अपना आसन जमाती है। माहेश्वरी बैल पर, कौमारी मोर पर, और हाथ में कमल लिए हुए विष्णु प्रिया लक्ष्मी जी कमल के आसन पर विराजती है। बैल पर बैठी हुई ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित ब्राह्मी देवी हंस पर बैठती है और इस प्रकार यह सब देवियाँ सब प्रकार के योगों से युक्त और अनेक प्रकार के रत्न धारण किये हुए है।

भक्तों की रक्षा के लिए संपूर्ण देवियाँ रथ मेंबैठी तथा क्रोध में भरी हुई दिखाई देती हैं तथा चक्र, गदा, शक्ति, हल और मूसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, भाला और त्रिशूल एवं उत्तम शारंग आदि शस्त्रों को दैत्यों के नाश के लिए और भक्तों की रक्षा करने के लिए और देवताओं के कल्याण के लिए धारण किया है। हे महारौद्रे! अत्यन्त घोर पराक्रम, महान बल और महान उत्साह वाली देवी! तुमको मैं नमस्कार करता हूँ। हे देवि! तुम्हारा दर्शन दुर्लभ है तथा आप शत्रुओं के भय को बढ़ाने वाली हैं।

हे जगदम्बिके! मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऎंन्द्री मेरी रक्षा करें, अग्निकोण में शक्ति, दक्षिण कोण में वाराही देवी, नैऋत्यकोण में खड्ग धारिणी देवी मेरी रक्षा करें। वारुणी पश्चिम दिशा में, वायुकोण में मृगवाहिनी, उत्तर में कौमारी और ईशान में शूलधारिणी देवी मेरी रक्षा करें, ब्राह्मणी ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करें और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करें और इसी प्रकार शव पर बैठ चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करें।

जया देवी आगे, विजया पीछे की ओर, अजिता बायीं ओर, अपराजिता दाहिनी ओर मेरी रक्षा करें, उद्योतिनी देवी शिखा की रक्षा करें तथा उमा शिर में स्थित होकर मेरी करें, इसी प्रकार मस्तक में मालाधारी देवी रक्षा करें और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करें। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा, नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे, नेत्रों के मध्य में शंखिनी देवी और द्वारवासिनी देवी कानों की रक्षा करें, सुगंधा नासिका में और चर्चिका ऊपर के होंठ में, अमृतकला नीचे के होंठ की, सरस्वती देवी जीभ की रक्षा करे, कौमारी देवी दाँतों की और चण्डिका कण्ठ प्रदेश की रक्षा करे, चित्रघण्टा गले की घण्टी की और महामाया तालु की रक्षा करे, कामाक्षी ठोढ़ी की, सर्वमंगला वाणी की रक्षा करे।

भद्रकाली गर्दन की और धनुर्धरी पीठ के मेरुदण्ड की रक्षा करें, कण्ठ के बाहरी भाग की नील ग्रीवा और कण्ठ की नली की नलकूबरी रक्षा करे, दोनो कन्धों की खड्गिनी और वज्रधारिणी मेरी दोनों बाहों की रक्षा करे, दण्डिनी दोनों हाथों की और अम्बिकादेवी समस्त अंगुलियों की रक्षा करे, शूलेश्वरी देवी संपूर्ण नखोंकी, कुलेश्वरी देवी मेरी कुक्षि की रक्षा करे, महादेवी दोनों स्तनों की, शोक विनाशिनी मन की रक्षा करे, ललितादेवी ह्रदय की, शूलधारिणी उदर की रक्षा करे।

कामिनी देवी नाभि की गुह्येश्वरी गुह्य स्थान की, पूतना और कामिका लिंग की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे, सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करने वाली महाबलादेवी दोनों जंघाओं की रक्षा करे, विन्ध्यावासिनी दोनों घुटनों की और तैजसी देवी दोनों पाँवों के पृष्ठ भग की, श्रीधरी पाँवों की अंगुलियों की, स्थलवासिनी तलुओं की, दंष्ट्रा करालिनीदेवी नखों की, ऊर्ध्वकेशिनी केशों की, बागेश्वरी वाणी की रक्षा करे, रोमाबलियों के छिद्रों की कौबेरी और त्वचा की बागेश्वरी देवी रक्षा करे। पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी की रक्षा करे।

कालरात्री आँतों की रक्षा करें, मुकुटेश्वरी देवी पित्त की, पद्मावती कमलकोष की, चूड़ामणि कफ की रक्षा करें, ज्वालामुखी नसों के जल की रक्षा करें, अभेद्यादेवी शरीर के सब जोड़ो की रक्षा करें, बह्माणी मेरे वीर्य की, छत्रेश्वरी छाया की और धर्मधारिणी मेरे अहंकार, मन तथा बुद्धि की रक्षा करें। प्राण अपान, समान, उदान और व्यान की वज्रहस्ता देवी रक्षा करें, कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे, रस, रूप, गन्ध शब्द और स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी मेरी रक्षा करें तथा मेरे सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण की रक्षा नारायणी देवी करें।

आयु की रक्षा बाराही देवी करे, वैष्णवी धर्म की तथा चक्रिणी देवी मेरी यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन, विद्या की रक्षा करे, इन्द्राणी मेरे शरीर की रक्षा करे और हे चण्डिके! आप मेरे पशुओं की रक्षा करिये। महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी मेरी पत्नी की रक्षा करे, मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षमाकरी देवी रक्षा करे, राजा के दरबार में महालक्ष्मी तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी चारों ओर से मेरी रक्षा करे।

जो स्थान रक्षा से रहित हो और कवच में रह गया हो उसकी पापों का नाश करने वाली जयन्ती देवी रक्षा करे। अपना शुभ चाहने वाले मनुष्य को बिना कवच के एक पग भी कहीं नहीं जाना चाहिए क्योंकि कवच रखने वाला मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता हैं, वहाँ-वहाँ उसे अवश्य धन लाभ होता है तथा विजय प्राप्त करता है। वह जिस अभीष्ट वस्तु की इच्छा करता है वह उसको इस कवच के प्रभाव से अवश्य मिलती हैऔर वह इसी संसार में महा ऎश्वर्य को प्राप्त होता है, कवचधारी मनुष्य निर्भय होता है, और वह तीनों लोकों में माननीय होता है, देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी कठिन है।

जो नित्य प्रति नियम पूर्वक तीनों संध्याओं को श्रद्धा के साथ इसका पठन-पाठन करता है उसे देव-शक्ति प्राप्त होती है, वह तीनों लोकों को जीत सकता है तथा अकाल मृत्यु से रहित होकर सौ वर्षों तक जीवित रहता है, उसकी लूता, चर्मरोग, विस्फोटक आदि समस्त व्याधियाँ समूल नष्ट हो जाती हैं और स्थावर, जंगम तथा कृत्रिम विष दूर होकर उनका कोई असर नहीं होता है तथा समस्त अभिचारक प्रयोग और इस तरह के जितने यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र इत्यादि होते हैं इस कवच के हृदय में धारण कर लेने पर नष्ट हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त पृथ्वी पर विचरने वाले भूचर, नभचर, जलचर प्राणी उपदेश मात्र से, सिद्ध होने वाले निम्न कोटि के देवता, जन्म के साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, कण्ठमाला आदि डाँकिनी शाँकिनी अन्तरिक्ष में विचरने वाली अत्यन्त बलवती भयानक डाँकिनियाँ, गृह, भूत, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस वैताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी उस मनुष्य को जिसने कि अपने हृदय में यह कवच धारण किया हुआ है, देखते ही भाग जाते हैं। इस कवच के धारण करने से मान और तेज बढ़ता है।

जो मनुष्य इस कवच का पाठ करके उसके पश्चात सप्तशती चंडीका का पाठ करता है उसका यश जगत में विख्यात होता है, और जब तक वन पर्वत और काननादि इस भूमण्डल पर स्थित हैं, तब तक यहाँ पुत्र पौत्र आदि सन्तान परम्परा बनी रहती है, फिर देहान्त होने पर मनुष्य परम पद को प्राप्त होता है जो देवताओं के लिए भी कठिन है और अन्त में सुन्दर रूप को धारण करके भगवान शंकर के साथ आनन्द करता हुआ परम मोक्ष को प्राप्त होता है।

सोमवार, 19 जून 2017

हनुमान चालीसा पढ़ने की गुप्त एव्म रहस्यमय विधि!

हनुमान चालीसा पढ़ने की  गुप्त एव्म रहस्यमय विधि!!
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यदि हनुमान चालीसा पाठ करने से पूर्ण लाभ ना होने से एक बार ये विधि अवश्य पढ़े ये विधि आपकी इच्छाओ को पूरा कर सकती है!
मुझसे बहुत मित्रो और भक्तों ने कहा की वे लगातार हनुमान चालिसा पड़ते आ रहे है किन्तु उन्हें पूर्ण लाभ नजर नही आता कारण क्या है??
कोई भी चालिसा हो उसके पड़ने का एक मुख्य नियम है जो गुप्त है।किन्तु समाज के कल्याणार्थ ,भक्तों के कल्याणार्थ मैं इस रहस्य को प्रगट करता हूँ!!
रहस्य मात्र इतना है की जब भी आप किसी चालीसा को पढ़ते हैं तो उस चालीसा में कही न कही भक्त का नाम का उल्लेख होता है !जैसे श्री हनुमान चालिसा के अंतिम जो दोहा है !
।।दोहा।।
"तुलसीदास"सदा हरि चेरा ।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥४०॥ 

इस श्लोको में "तुलसीदास "जो नाम लिखा वो आपका नहीं है इस स्थान पे आप अपने नाम का उच्चारण करे!और चालिसा के पन्नों में भी व्हाइटनर लगा के ऊपर अपना नाम लिखे एवं तुलसीदासजी को प्रणाम कर दो अगरबत्ती लगा कर इस चालीसा को प्रदान करने हेतु,धन्यवाद कर पाठ प्रारम्भ करे।
जैसे यदि मैं पाठ करता हूँ तो-
।।दोहा।।
"राहुलनाथ"सदा हरि चेरा ।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥४०॥ 

बस इतना सा परिवर्तन आपको हनुमान चालीसा से चमत्कारी लाभ प्रदान करेगा एवम् आपको हनुमानजी की कृपा पूर्ण रूप से प्राप्त होगी!!
विशेष:-किसी भी चालिसा का पाठ करने से पहले अपने गुरुदेव से,ज्योतिष्य से,या किसी इस विषय के मर्मज्ञ से जानकारी प्राप्त कर लेना चाहिए की किसी चालीसा के पाठ करने से आपको लाभ होगा!अपनी इच्छा से किसी भी देवता की चालिसा पढ़ने से लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है!इसी प्रकार से सभी मंत्रो के रहस्य होते है चाँबी होती है!!इसी प्रकार से भगवान शिव ने सारे मंत्रो तंत्रो का किलन किया हुआ है!जो गुरु शिष्य परम्परा में प्रदान करना मान्य हैं!

आदेश यह पोस्ट मेरे निजी अनुभव के अनुसार है !! ये मेरी अपनी अनुभुतियों का स्तर है !! यदी आपको ये पोस्ट सही लगे तो कमेंट में लिखे ! इसके आगे कि जानकारी क्रमश : मै आपको देने का प्रयास करुगा !! मेरा संकल्प समाज से धर्म के नाम पे आडम्बर फैलाने वालो का सफ़ाया कर धर्म एवं पूजा-साधना विधिकी सही जानकारी का प्रचार करना रहा है !
क्रमश:

तो आओ भक्तो 43 दिन हनुमान चालीसा का पाठ करे.......

।।॥दोहा॥

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ॥

॥चौपाई॥

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥१॥

राम दूत अतुलित बल धामा ।
अञ्जनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥२॥

महाबीर बिक्रम बजरङ्गी ।
कुमति निवार सुमति के सङ्गी ॥३॥

कञ्चन बरन बिराज सुबेसा ।
कानन कुण्डल कुञ्चित केसा ॥४॥

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै ।
काँधे मूँज जनेउ साजै ॥५॥

सङ्कर सुवन केसरीनन्दन ।
तेज प्रताप महा जग बन्दन ॥६॥

बिद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ॥७॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ।
राम लखन सीता मन बसिया ॥८॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा ।
बिकट रूप धरि लङ्क जरावा ॥९॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे ।
रामचन्द्र के काज सँवारे ॥१०॥

लाय सञ्जीवन लखन जियाये ।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥११॥

रघुपति कीह्नी बहुत बड़ाई ।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥१२॥

सहस बदन तुह्मारो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥१३॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ।
नारद सारद सहित अहीसा ॥१४॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते ।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥१५॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीह्ना ।
राम मिलाय राज पद दीह्ना ॥१६॥

तुह्मरो मन्त्र बिभीषन माना ।
लङ्केस्वर भए सब जग जाना ॥१७॥

जुग सहस्र जोजन पर भानु ।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥१८॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं ।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥१९॥

दुर्गम काज जगत के जेते ।
सुगम अनुग्रह तुह्मरे तेते ॥२०॥

राम दुआरे तुम रखवारे ।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥२१॥

सब सुख लहै तुह्मारी सरना ।
तुम रच्छक काहू को डर ना ॥२२॥

आपन तेज सह्मारो आपै ।
तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥२३॥

भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
महाबीर जब नाम सुनावै ॥२४॥

नासै रोग हरै सब पीरा ।
जपत निरन्तर हनुमत बीरा ॥२५॥

सङ्कट तें हनुमान छुड़ावै ।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥२६॥

सब पर राम तपस्वी राजा ।
तिन के काज सकल तुम साजा ॥२७॥

और मनोरथ जो कोई लावै ।
सोई अमित जीवन फल पावै ॥२८॥

चारों जुग परताप तुह्मारा ।
है परसिद्ध जगत उजियारा ॥२९॥

साधु सन्त के तुम रखवारे ।
असुर निकन्दन राम दुलारे ॥३०॥

अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता ।
अस बर दीन जानकी माता ॥३१॥

राम रसायन तुह्मरे पासा ।
सदा रहो रघुपति के दासा ॥३२॥

तुह्मरे भजन राम को पावै ।
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥३३॥

अन्त काल रघुबर पुर जाई ।
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥३४॥

और देवता चित्त न धरई ।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥३५॥

सङ्कट कटै मिटै सब पीरा ।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥३६॥

जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ॥३७॥

जो सत बार पाठ कर कोई ।
छूटहि बन्दि महा सुख होई ॥३८॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा ।
होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥३९॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा ।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥४०॥ 

॥दोहा॥

पवनतनय सङ्कट हरन मङ्गल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ॥

*****जयश्री महाकाल****
******स्वामी राहुलनाथ********
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