बुधवार, 21 जून 2017

चंडी देवी कवचं

चंडी देवी कवचं

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ॐ नमश्चंडिकायै

न्यासः
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अस्य श्री चंडी कवचस्य । ब्रह्मा ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः ।चामुंडा देवता । अंगन्यासोक्त मातरो बीजम् । नवावरणो मंत्रशक्तिः । दिग्बंध देवताः तत्वम् । श्री जगदंबा प्रीत्यर्थे सप्तशती पाठांगत्वेन जपे विनियोगः ॥

ॐ नमश्चंडिकायै

मार्कंडेय उवाच ।
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ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच ।
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अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥ २ ॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चंद्रघंटेति कूष्मांडेति चतुर्थकम् ॥ ३ ॥

पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥ ४ ॥

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥ ५ ॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ ६ ॥

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ॥ ७ ॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।
ये त्वां स्मरंति देवेशि रक्षसे तान्नसंशयः ॥ ८ ॥

प्रेतसंस्था तु चामुंडा वाराही महिषासना ।
ऐंद्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥ ९ ॥

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ॥ १० ॥

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥ ११ ॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ।
नानाभरणाशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥ १२ ॥

दृश्यंते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ।
शंखं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ॥ १३ ॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।
कुंतायुधं त्रिशूलं च शार्ंगमायुधमुत्तमम् ॥ १४ ॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।
धारयंत्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥ १५ ॥

नमस्ते‌உस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥ १६ ॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामैंद्री आग्नेय्यामग्निदेवता ॥ १७ ॥

दक्षिणे‌உवतु वाराही नैरृत्यां खड्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ॥ १८ ॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ॥ १९ ॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुंडा शववाहना ।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ॥ २० ॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ २१ ॥

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघंटा च नासिके ॥ २२ ॥

शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी ॥ २३ ॥

नासिकायां सुगंधा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ॥ २४ ॥

दंतान् रक्षतु कौमारी कंठदेशे तु चंडिका ।
घंटिकां चित्रघंटा च महामाया च तालुके ॥ २५ ॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमंगला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥ २६ ॥

नीलग्रीवा बहिः कंठे नलिकां नलकूबरी ।
स्कंधयोः खड्गिनी रक्षेद्बाहू मे वज्रधारिणी ॥ २७ ॥

हस्तयोर्दंडिनी रक्षेदंबिका चांगुलीषु च ।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥ २८ ॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ २९ ॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद्गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥ ३० ॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विंध्यवासिनी ।
जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥ ३१ ॥

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥ ३२ ॥

नखान् दंष्ट्रकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा ॥ ३३ ॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अंत्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ ३४ ॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥ ३५ ॥

शुक्रं ब्रह्माणि! मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ ३६ ॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ॥ ३७ ॥

रसे रूपे च गंधे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥ ३८ ॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी ॥ ३९ ॥

गोत्रमिंद्राणि! मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चंडिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥ ४० ॥

पंथानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ॥ ४१ ॥

रक्षाहीनं तु यत्-स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि! जयंती पापनाशिनी ॥ ४२ ॥

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ॥ ४३ ॥

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः ।
यं यं चिंतयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ॥ ४४ ॥

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ।
निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः ॥ ४५ ॥

त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ।
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ॥ ४६ ॥

यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसंध्यं श्रद्धयान्वितः ।
दैवीकला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः । ४७ ॥

जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ।
नश्यंति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ॥ ४८ ॥

स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ।
अभिचाराणि सर्वाणि मंत्रयंत्राणि भूतले ॥ ४९ ॥

भूचराः खेचराश्चैव जुलजाश्चोपदेशिकाः ।
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ॥ ५० ॥

अंतरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ।
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगंधर्वराक्षसाः ॥ ५१ ॥

ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्मांडा भैरवादयः ।
नश्यंति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ॥ ५२ ॥

मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ।
यशसा वर्धते सो‌உपि कीर्तिमंडितभूतले ॥ ५३ ॥

जपेत्सप्तशतीं चंडीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।
यावद्भूमंडलं धत्ते सशैलवनकाननम् ॥ ५४ ॥

तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी ।
देहांते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् ॥ ५५ ॥

प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ।
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ ५६ ॥

॥ इति वाराहपुराणे हरिहरब्रह्म विरचितं देव्याः कवचं संपूर्णम् ॥

देवीकवचं हिंदी भावार्थ
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महर्षि मार्कण्डेयजी बोले – हे पितामह! संसार में जो गुप्त हो और जो मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करता हो और जो आपने आज तक किसी को बताया ना हो, वह कवच मुझे बताइए। श्री ब्रह्माजी कहने लगे – अत्यन्त गुप्त व सब प्राणियों की भलाई करने वाला कवच मुझसे सुनो, प्रथम शैलपुत्री, दूसरी ब्रह्मचारिणी, तीसरी चन्द्रघंटा, चौथी कूष्माण्डा, पाँचवीं स्कन्दमाता। छठी कात्यायनी, सातवीं कालरात्री, आठवीं महा गौरी, नवीं सिद्धि दात्री यह देवी की नौ मूर्त्तियाँ, “नवदुर्गा” कहलाती हैं। आग में जलता हुआ, रण में शत्रु से घिरा हुआ, विषम संकट में फँसा हुआ मनुष्य यदि दुर्गा के नाम का स्मरण करे तो उसको कभी भी हानि नहीं होती। रण में उसके लिए कुछ भी आपत्ति नहीं और ना उसे किसी प्रकार का दुख या डर ही होता है।

हे देवी! जिसने श्रद्धा पूर्वक तुम्हारा स्मरण किया है उसकी वृद्धि होती है। और जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करने वाली हो। चामुण्डा प्रेत पर, वाराही भैंसे पर, रौद्री हाथी पर, वैष्णवी गरुड़ पर अपना आसन जमाती है। माहेश्वरी बैल पर, कौमारी मोर पर, और हाथ में कमल लिए हुए विष्णु प्रिया लक्ष्मी जी कमल के आसन पर विराजती है। बैल पर बैठी हुई ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित ब्राह्मी देवी हंस पर बैठती है और इस प्रकार यह सब देवियाँ सब प्रकार के योगों से युक्त और अनेक प्रकार के रत्न धारण किये हुए है।

भक्तों की रक्षा के लिए संपूर्ण देवियाँ रथ मेंबैठी तथा क्रोध में भरी हुई दिखाई देती हैं तथा चक्र, गदा, शक्ति, हल और मूसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, भाला और त्रिशूल एवं उत्तम शारंग आदि शस्त्रों को दैत्यों के नाश के लिए और भक्तों की रक्षा करने के लिए और देवताओं के कल्याण के लिए धारण किया है। हे महारौद्रे! अत्यन्त घोर पराक्रम, महान बल और महान उत्साह वाली देवी! तुमको मैं नमस्कार करता हूँ। हे देवि! तुम्हारा दर्शन दुर्लभ है तथा आप शत्रुओं के भय को बढ़ाने वाली हैं।

हे जगदम्बिके! मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऎंन्द्री मेरी रक्षा करें, अग्निकोण में शक्ति, दक्षिण कोण में वाराही देवी, नैऋत्यकोण में खड्ग धारिणी देवी मेरी रक्षा करें। वारुणी पश्चिम दिशा में, वायुकोण में मृगवाहिनी, उत्तर में कौमारी और ईशान में शूलधारिणी देवी मेरी रक्षा करें, ब्राह्मणी ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करें और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करें और इसी प्रकार शव पर बैठ चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करें।

जया देवी आगे, विजया पीछे की ओर, अजिता बायीं ओर, अपराजिता दाहिनी ओर मेरी रक्षा करें, उद्योतिनी देवी शिखा की रक्षा करें तथा उमा शिर में स्थित होकर मेरी करें, इसी प्रकार मस्तक में मालाधारी देवी रक्षा करें और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करें। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा, नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे, नेत्रों के मध्य में शंखिनी देवी और द्वारवासिनी देवी कानों की रक्षा करें, सुगंधा नासिका में और चर्चिका ऊपर के होंठ में, अमृतकला नीचे के होंठ की, सरस्वती देवी जीभ की रक्षा करे, कौमारी देवी दाँतों की और चण्डिका कण्ठ प्रदेश की रक्षा करे, चित्रघण्टा गले की घण्टी की और महामाया तालु की रक्षा करे, कामाक्षी ठोढ़ी की, सर्वमंगला वाणी की रक्षा करे।

भद्रकाली गर्दन की और धनुर्धरी पीठ के मेरुदण्ड की रक्षा करें, कण्ठ के बाहरी भाग की नील ग्रीवा और कण्ठ की नली की नलकूबरी रक्षा करे, दोनो कन्धों की खड्गिनी और वज्रधारिणी मेरी दोनों बाहों की रक्षा करे, दण्डिनी दोनों हाथों की और अम्बिकादेवी समस्त अंगुलियों की रक्षा करे, शूलेश्वरी देवी संपूर्ण नखोंकी, कुलेश्वरी देवी मेरी कुक्षि की रक्षा करे, महादेवी दोनों स्तनों की, शोक विनाशिनी मन की रक्षा करे, ललितादेवी ह्रदय की, शूलधारिणी उदर की रक्षा करे।

कामिनी देवी नाभि की गुह्येश्वरी गुह्य स्थान की, पूतना और कामिका लिंग की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे, सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करने वाली महाबलादेवी दोनों जंघाओं की रक्षा करे, विन्ध्यावासिनी दोनों घुटनों की और तैजसी देवी दोनों पाँवों के पृष्ठ भग की, श्रीधरी पाँवों की अंगुलियों की, स्थलवासिनी तलुओं की, दंष्ट्रा करालिनीदेवी नखों की, ऊर्ध्वकेशिनी केशों की, बागेश्वरी वाणी की रक्षा करे, रोमाबलियों के छिद्रों की कौबेरी और त्वचा की बागेश्वरी देवी रक्षा करे। पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी की रक्षा करे।

कालरात्री आँतों की रक्षा करें, मुकुटेश्वरी देवी पित्त की, पद्मावती कमलकोष की, चूड़ामणि कफ की रक्षा करें, ज्वालामुखी नसों के जल की रक्षा करें, अभेद्यादेवी शरीर के सब जोड़ो की रक्षा करें, बह्माणी मेरे वीर्य की, छत्रेश्वरी छाया की और धर्मधारिणी मेरे अहंकार, मन तथा बुद्धि की रक्षा करें। प्राण अपान, समान, उदान और व्यान की वज्रहस्ता देवी रक्षा करें, कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे, रस, रूप, गन्ध शब्द और स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी मेरी रक्षा करें तथा मेरे सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण की रक्षा नारायणी देवी करें।

आयु की रक्षा बाराही देवी करे, वैष्णवी धर्म की तथा चक्रिणी देवी मेरी यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन, विद्या की रक्षा करे, इन्द्राणी मेरे शरीर की रक्षा करे और हे चण्डिके! आप मेरे पशुओं की रक्षा करिये। महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी मेरी पत्नी की रक्षा करे, मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षमाकरी देवी रक्षा करे, राजा के दरबार में महालक्ष्मी तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी चारों ओर से मेरी रक्षा करे।

जो स्थान रक्षा से रहित हो और कवच में रह गया हो उसकी पापों का नाश करने वाली जयन्ती देवी रक्षा करे। अपना शुभ चाहने वाले मनुष्य को बिना कवच के एक पग भी कहीं नहीं जाना चाहिए क्योंकि कवच रखने वाला मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता हैं, वहाँ-वहाँ उसे अवश्य धन लाभ होता है तथा विजय प्राप्त करता है। वह जिस अभीष्ट वस्तु की इच्छा करता है वह उसको इस कवच के प्रभाव से अवश्य मिलती हैऔर वह इसी संसार में महा ऎश्वर्य को प्राप्त होता है, कवचधारी मनुष्य निर्भय होता है, और वह तीनों लोकों में माननीय होता है, देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी कठिन है।

जो नित्य प्रति नियम पूर्वक तीनों संध्याओं को श्रद्धा के साथ इसका पठन-पाठन करता है उसे देव-शक्ति प्राप्त होती है, वह तीनों लोकों को जीत सकता है तथा अकाल मृत्यु से रहित होकर सौ वर्षों तक जीवित रहता है, उसकी लूता, चर्मरोग, विस्फोटक आदि समस्त व्याधियाँ समूल नष्ट हो जाती हैं और स्थावर, जंगम तथा कृत्रिम विष दूर होकर उनका कोई असर नहीं होता है तथा समस्त अभिचारक प्रयोग और इस तरह के जितने यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र इत्यादि होते हैं इस कवच के हृदय में धारण कर लेने पर नष्ट हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त पृथ्वी पर विचरने वाले भूचर, नभचर, जलचर प्राणी उपदेश मात्र से, सिद्ध होने वाले निम्न कोटि के देवता, जन्म के साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, कण्ठमाला आदि डाँकिनी शाँकिनी अन्तरिक्ष में विचरने वाली अत्यन्त बलवती भयानक डाँकिनियाँ, गृह, भूत, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस वैताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी उस मनुष्य को जिसने कि अपने हृदय में यह कवच धारण किया हुआ है, देखते ही भाग जाते हैं। इस कवच के धारण करने से मान और तेज बढ़ता है।

जो मनुष्य इस कवच का पाठ करके उसके पश्चात सप्तशती चंडीका का पाठ करता है उसका यश जगत में विख्यात होता है, और जब तक वन पर्वत और काननादि इस भूमण्डल पर स्थित हैं, तब तक यहाँ पुत्र पौत्र आदि सन्तान परम्परा बनी रहती है, फिर देहान्त होने पर मनुष्य परम पद को प्राप्त होता है जो देवताओं के लिए भी कठिन है और अन्त में सुन्दर रूप को धारण करके भगवान शंकर के साथ आनन्द करता हुआ परम मोक्ष को प्राप्त होता है।

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