बुधवार, 21 सितंबर 2016

नौरात्री एवं दशमहाविद्या

नौरात्री एवं दशमहाविद्या 
दक्ष प्रजापति ने जब यज्ञ की तब उन्होंने सिवाय शिव-सती के सभी देवताओ को यज्ञ का निमंत्रण भेजा,इधर जब दक्ष कन्या सती को जब इस यज्ञ का पता चला तो बिना निमंत्रण के सती दक्ष के यज्ञ जाने को तैयार हो गई ,ऐसी अवस्था में भगवान् शिव ने सती को टोकते हुए कहा की हे देवी बिना निमंत्रण के किसी के यहां जाना अपमान का कारण बनता है फिर वह पिता का ही घर क्यों ना हो।किन्तु सती ने भगवान शिव की बात ना मानते हुए हठ धारण कर कहा की मैं अपने पति यज्ञ भाग अवश्य मांगूंगी।देवी ने जब यह बात क्रोध पूर्वक कही उस समय देवी के नेत्र रक्तवर्णी हो गए वर्ण काला पढ़ गया एवं होठ कम्पित होने लगे।देवी के ऐसे क्रोध पूर्वक स्वरूप को भगवान ने अपने स्थान को त्यागना ही उचित समझा और वह उस स्थान को छोड़ कर अन्य दिशा की और प्रस्थान कर गए,भगवान इस अवस्था में जिस दिशा की ओर जाते उधर देवी का एक स्वरूप उत्पन्न हो जाता एवं भगवान शिव का मार्ग रोक देता था इसी प्रकार दसो दिशाओ में भगवान शिव ने देवी के दसो विग्रह का दर्शन किया।इस सम्बन्ध में भगवान शिव ने देवी से प्रश्न किया की देवी ये सब कौन है तब देवी ने भगवान शिव को बताया की हे नाथ!आपके सामने कृष्ण वर्णी एवं भयानक नेत्रो वाली देवी काली है।आपके उधर्वभाग में श्याम वर्णी देवी स्वयं महाकाल रूपा तारा है।आपके दाए भागमे मस्तक विहीन देवी छिंदमस्तका है आपके बाए भाग में देवी सारे संसार में राज करने वाली भुवनेश्वरी है।आपके पृष्ठ भाग में शत्रु का संहार करने वाली देवी बगला है ।आपके समक्ष आग्नेय कोण में में विधवा रूपी देवी धूमावती है  एवं नैऋत्र में देवी त्रिपुरसुंदरी है एवं आपके वायव्य कोण में उपस्थित देवी मतंग-तनया मातंगी है आपके ईशान कोण में षोडशी एवं  भैरवी रूप में मैं स्वयं विराजमान हूँ मैं ही दस महाविद्या हूँ अतः प्रभु आप भयभीत ना हो।देवी ने कहा हे देवी आप स्वयं साधक है सिद्ध है योगिराज है एवं साधको को चाहिए की वे चाहे जिस महाविद्या की साधना करे ,वह उनमे परस्पर भेद-बुद्धि न रखे।लीला भेद के कारण ही मुझे संसार एवं भक्तो के कल्याणार्थ भिन्न-भिन्न रूप में अवतरित होना पढता है।
ऋषियो ने महाविद्या का वर्गीकरण करके मेरे ही दो कुलो की रचना की है जो की दिखती तो दो है किन्तु अनंत में हम एक ही है ।मेरे दो कुलो को ऋषियो ने प्रथम को काली कुल एवं द्वतीय को श्री कुल का नाम दिया है और इन दोनों कुलो के एक स्थान में मिलने पर ही मैं सवय आपकी शक्ति दुर्गा कहलाती हूँ।प्रथम कुल में मेरे चार स्वरूप काली,तारा,भुवनेश्वरी,छिन्मस्ता आदि प्रचंड रूपों की गणना की जाती है एवं शेष छः स्वरूप षोडशी,त्रिपुरभैरवी,धूमावती,बगलामुखी,मातंगी एवं कमला की गणना श्री कुल में की जाती है।
गुणों के आधार पे कुछ ऋषियो ने मेरे तीन रूपों को व्यक्त किया है जैसे 
१.सौम्य:-त्रिपुर सुंदरी,भुवनेश्वरी,मातंगी एवं महालक्ष्मी
२.उग्रकोटि:-काली,छिन्नमस्ता,धूमावती एवं बगलामुखी
३.सौम्योगरकोटि:-तारा एवं त्रिपुर भैरवी
हे प्रभु नौरात्री में साधकगण में इन्ही रूपों की उपासना कर भिन्न-भिन्न मनोकामनाओ की पूर्ति करते है।
इतना कह कर देवी सती अपने पिता दक्ष प्रजापति के घर भगवान शिव के मना करने पर भी चले गई जहाँ दक्ष प्रजापति के भगवान शिव को मान न देते हुए दक्ष ने भगवान शिव को अपमान सूचक शब्दों का उपयोग कर भगवान का उपहास उड़ाया इस अपमान को देवी सहन ना कर सकी एवं अपनी योग शक्ति के द्वारा अपने पिता के घर में ही अग्नि स्नान को ग्रहण कर भस्म हो गई ।

दस महाविद्या साधना नवरात्री में
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प्रथम दिन की महा देवी काली की साधना
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प्रथम दिन की महा देवी काली स्वरुप हैं। 
इनकी साधना साधक को उत्तर की ओर मुख करके करनी चाहिए
देवी कालिका की काले हकीक की माला से जाप करना चाहिए। कालिका की आराधना असाध्य बीमारी से मुक्ति, दुष्ट आत्माओं या क्रूर ग्रहों से बचाव के लिए की जाती है। इसके अलावा अकाल मृत्यु से बचाव और वाक सिद्धि प्राप्त करने के लिए काली की आराधना की जाती है। 
दस महाविद्या में काली प्रथम रूप है। माता का यह रूप साक्षात और जाग्रत है। काली के रूप में माता का किसी भी प्रकार से अपमान करना अर्थात खुद के जीवन को संकट में डालने के समान है। महा दैत्यों का वध करने के लिए माता ने ये रूप धरा था। सिद्धि प्राप्त करने के लिए माता की वीरभाव में पूजा  की जाती है। काली माता तत्काल प्रसन्न होने वाली और तत्काल ही रूठने वाली देवी है। अत: इनकी साधना या इनका भक्त बनने के पूर्व एकनिष्ठ और कर्मों से पवित्र होना जरूरी होता है।
यह देवी कज्जल पर्वत के समान शव पर आरूढ़ मुंडमाला धारण किए हुए एक हाथ में खड्ग दूसरे हाथ में त्रिशूल और तीसरे हाथ में कटे हुए सिर को लेकर भक्तों के समक्ष प्रकट होने वाली है। यह काली एक प्रबल शत्रुहन्ता महिषासुर मर्दिनी और रक्तबीज का वध करने वाली शिव प्रिया चामुंडा का साक्षात स्वरूप है, जिसने देव-दानव युद्ध में देवताओं को विजय दिलवाई थी। इनका क्रोध तभी शांत हुआ था जब शिव इनके चरणों में लेट गए थे।

*नाम : माता कालिका
*शस्त्र : त्रिशूल और तलवार 
*वार : शुक्रवार 
*दिन : अमावस्या
*ग्रंथ : कालिका पुराण
*मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके स्वाहा
*दुर्गा का एक रूप : माता कालिका 10 महाविद्याओं में से एक
*मां काली के 4 रूप हैं:- दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली।
*राक्षस वध : रक्तबीज।
*कालीका के प्रमुख तीन स्थान है:- कोलकाता में कालीघाट पर जो एक शक्तिपीठ भी है। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भैरवगढ़ में गढ़कालिका मंदिर इसे भी शक्तिपीठ में शामिल किया गया है और गुजरात में पावागढ़ की पहाड़ी पर स्थित महाकाली का जाग्रत मंदिर चमत्कारिक रूप से मनोकामना पूर्ण करने वाला है।

काली की आराधना करने का मंत्र है 
“ॐ क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं स्वाहा:”।
"क्रीं ह्रीं काली ह्रीं क्रीं स्वाहा:"

विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
दस महाविद्या की साधना करनेवाले सभी साधको को ९ दिन फलहार में रहना चाहिए तथा किसी एक रंग के वस्त्र को नौ दिन धारण करना चाहिए। रंगों में तीन रंग प्रमुख हैं- काला (उत्तम ), लाल (मध्य ), सफ़ेद (निम्न)। इस प्रकार का साधना विशेष साधको के लिए है। इनकी पूजा करें तो उनके घरमें सुख शान्ति बनी रहती है और आकाल मृत्यु नही होती है.

द्वितीय दिन: माँ तारा की साधना.
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दूसरे दिन की महा देवी माँ तारा स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को ईशान कोने की ओर मुख करके करनी चाहिए। ईशान कोन उत्तर पूर्व दिशा के बीच के कोन को कहते हैं.नीले कांच की माला से प्रतिदिन इनके मंत्र का जाप करना चाहिए।
जिसे श्मशान तारा के नाम से भी जाना जाता है,तारा की सिद्धि जिसे प्राप्त हो जाती है, वह व्यक्ति मां तारा की गोद में एक बच्चे की तरह रहता है। जिसे श्मशान तारा की कृपा प्राप्त हो जाती है उसका जीवन खुशियों से भर जाता है, श्मशान तारा की सिद्धि प्राप्त करने वाले व्यक्ति को वाक सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।
सर्वदा मोक्ष देने वाली और तारने वाली को तारा का नाम दिया गया है। सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने मां तारा की पूजा की थी। आर्थिक उन्नति और बाधाओं के निवारण हेतु मां तारा महाविद्या का महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी सिद्धि से साधक की आय के नित्य नये साधन बनते हैं। जीवन ऐश्वर्यशाली बनता है। इस की पूजा गुरुवार से आरंभ करनी चाहिये। इससे शत्रुनाश, वाणी दोष निवारण और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
तांत्रिकों की प्रमुख देवी तारा। तारने वाली कहने के कारण माता को तारा भी कहा जाता है। सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने तारा की आराधना की थी। शत्रुओं का नाश करने वाली सौन्दर्य और रूप ऐश्वर्य की देवी तारा आर्थिक उन्नति और भोग दान और मोक्ष प्रदान करने वाली हैं। भगवती तारा के तीन स्वरूप हैं:- तारा , एकजटा और नील सरस्वती।

तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे, इसलिए इस स्थान को नयन तारा भी कहा जाता है। यह पीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला में स्थित है। इसलिए यह स्थान तारापीठ के नाम से विख्यात है। प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ ने इस स्थान पर देवी तारा की उपासना करके सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस मंदिर में वामाखेपा नामक एक साधक ने देवी तारा की साधना करके उनसे सिद्धियां हासिल की थी।

तारा माता के बारे में एक दूसरी कथा है कि वे राजा दक्ष की दूसरी पुत्री थीं। तारा देवी का एक दूसरा मंदिर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से लगभग 13 किमी की दूरी पर स्थित शोघी में है। देवी तारा को समर्पित यह मंदिर, तारा पर्वत पर बना हुआ है। तिब्‍बती बौद्ध धर्म के लिए भी हिन्दू धर्म की देवी ‘तारा’ का काफी महत्‍व है।

चैत्र मास की नवमी तिथि और शुक्ल पक्ष के दिन तारा रूपी देवी की साधना करना तंत्र साधकों के लिए सर्वसिद्धिकारक माना गया है। जो भी साधक या भक्त माता की मन से प्रार्धना करता है उसकी कैसी भी मनोकामना हो वह तत्काल ही पूर्ण हो जाती है।

तारा माता का मंत्र : 
*ऊँ ह्नीं स्त्रीं हुम फट’
*इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं तारा ह्रीं क्रीं स्वाहा.

इनकी पूजा करें तो उनके पुत्र के कष्टों का नाश होता है. अथवा अगर पुत्रहीन स्त्रियाँ यह जाप करें तो उन्हे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस मन्त्र के जाप से दुश्मनों पर विजय की प्राप्ति भी होती है.
इसके अलावा श्मशान तारा की कृपा से उसे तीव्र बुद्धि और रचनात्मकता भी हासिल होती है। श्मशान तारा सिद्धि प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपने शत्रुओं को जड़ से खत्म कर सकता है। श्मशान तारा की आराधना करने के लिए मूंगा, स्फटिक या काले हकीक की माला का प्रयोग करना चाहिए। 
तारा सिद्धि प्राप्त करने का मंत्र है।

तीसरा दिन: माँ भुवनेश्वरी
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तीसरे दिन की महा देवी माँ भुवनेश्वरी स्वरुप हैं।इनकी साधना साधक को पूरब की ओर मुख करके करनी चाहिए।भुवनेश्वरी को आदिशक्ति और मूल प्रकृति भी कहा गया है। भुवनेश्वरी ही शताक्षी और शाकम्भरी नाम से प्रसिद्ध हुई। पुत्र प्राप्ती के लिए लोग इनकी आराधना करते हैं।
भुवनेश्वरी माता का मंत्र स्फटिक की माला से प्रतिदिन करनी चाहिए।

आदि शक्ति भुवनेश्वरी मां का स्वरूप सौम्य एवं अंग कांति अरुण हैं। भक्तों को अभय एवं सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है। इस महाविद्या की आराधना से सूर्य के समान तेज और ऊर्जा प्रकट होने लगती है। ऐसा व्यक्ति अच्छे राजनीतिक पद पर आसीन हो सकता है। माता का आशीर्वाद मिलने से धनप्राप्त होता है और संसार के सभी शक्ति स्वरूप महाबली उसका चरणस्पर्श करते हैं।

मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।
महाविद्याओं में भुवनेश्वरी महाविद्या को आद्या शक्ति कहा गया है। मां भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंग कांतिमय है। मां भुवनेश्वरी की साधना से मुख्य रूप से वशीकरण, वाक सिद्धि, सुख, लाभ एवं शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। पृथ्वी पर जितने भी जीव हैं सब को इनकी कृपा से अन्न प्राप्त होता है। इसलिये इनके हाथ में शाक और फल-फूल के कारण इन्हें मां ‘शाकंभरी’ नाम से भी जाना जाता है। चंद्रमा इनका अधिष्ठातृ ग्रह है। 
सुख में वृद्धि करने और किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति करने के लिए भुवनेश्वरी मां की साधना करनी चाहिए। भुवनेश्वरी मां को प्रसन्न करना बेहद आसान है, वह अपने भक्त से बहुत ही जल्द प्रसन्न हो जाती हैं। भुवनेश्वरी मां की आराधना करने के लिए स्फटिक की माला से कम से कम 11 या 21 बार जाप करना चाहिए। 

भुवनेश्वरी मां की आराधना करने का मंत्र है 
*ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नम:”।
*क्रीं ह्रीं भुवनेश्वरी ह्रीं क्रीं स्वाहा"
*‘ह्नीं भुवनेश्वरीयै ह्नीं नम:’ 

इस मंत्र का जाप करें तो भुवन के सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ उसे प्राप्त होती हैं तथा दरिद्र व्यक्तियों का इनकी आराधना करना सबसे उचित माना गया है.

चौथा दिन- माँ षोडशी
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चौथा दिन की महा देवी माँ षोडशी स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को अग्नि कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। अग्नि कोन पूर्व दक्षिण दिशा के बीच के कोन को कहते हैं।त्रिपुर सुंदरी षोडशी माहेश्वरी शक्ति की विग्रह वाली शक्ति है। इनकी चार भुजा और तीन नेत्र हैं। इसे ललिता, राज राजेश्वरी और ‍त्रिपुर सुंदरी भी कहा जाता है। इनमें षोडश कलाएं पूर्ण है इसलिए षोडशी भी कहा जाता है। ‍‍भारतीय राज्य त्रिपुरा में स्थित त्रिपुर सुंदरी का शक्तिपीठ है माना जाता है कि यहां माता के धारण किए हुए वस्त्र गिरे थे। त्रिपुर सुंदरी शक्तिपीठ भारतवर्ष के अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक है।

दक्षिणी-त्रिपुरा उदयपुर शहर से तीन किलोमीटर दूर, राधा किशोर ग्राम में राज-राजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी का भव्य मंदिर स्थित है, जो उदयपुर शहर के दक्षिण-पश्चिम (south-west) में पड़ता है। यहां सती के दक्षिण ‘पाद’ का निपात हुआ था। यहां की शक्ति त्रिपुर सुंदरी तथा शिव त्रिपुरेश हैं। इस पीठ स्थान को ‘कूर्भपीठ’ भी कहते हैं।

उल्लेखनीय है कि महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा नाम की अनेक देवियां हैं, जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

त्रिपुर सुंदरी माता का मंत्र: रूद्राक्ष माला से करना चाहिए।
शक्ति की सब से मनोहर सिद्ध देवी है। इन के ललिता, राज-राजेश्वरी महात्रिपुर सुंदरी आदि अनेक नाम हैं। षोडशी साधना को राजराजेश्वरी इस लिये भी कहा जाता है क्योंकि यह अपनी कृपा से साधारण व्यक्ति को भी राजा बनाने में समर्थ हैं। इनमें षोडश कलायें पूर्ण रूप से विकसित हैं। इसलिये इनका नाम मां षोडशी हैं। इनकी उपासना श्री यंत्र के रूप में की जाती है। यह अपने उपासक को भक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती है। बुध इनका अधिष्ठातृ ग्रह है। 
संसार का कोई भी कार्य संपन्न करने के लिए त्रिपुर सुंदरी की आराधना की जानी चाहिए। जिस कार्य को करने में देवता भी सफल नहीं हो पाते, उसे त्रिपुर सुंदरी संपन्न करती है। त्रिपुर सुंदरी के अलावा इस संसार में ऐसी कोई भी साधना नहीं है जो भोग और मोक्ष एक साथ प्रदान करे। त्रिपुर सुंदरी साधना करने के लिए रुद्राक्ष की माला से दस बार जाप किया जाना चाहिए। 

त्रिपुर सुंदरी सिद्धि प्राप्त करने का मंत्र है 
*“ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम"
*"क्रीं ह्रीं षोडशी ह्रीं क्रीं स्वाहा:"

इनकी पूजा करें तो उनका यौवन बना रहता है तथा उस व्यक्ति मैं आकर्षण की शक्ति बढती है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उन्हें कार्तिक के सामान वीर पुत्र की प्राप्ति होती है।

पांचवा दिन: माँ छिन्मस्तिका काली
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पांचवा दिन की महा देवी माँ छिन्मस्तिका काली स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को दक्षिण कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए।
इस पविवर्तन शील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है। इनका सिर कटा हुआ और इनके कबंध से रक्त की तीन धाराएं बह रही है। इनकी तीन आंखें हैं और ये मदन और रति पर आसीन है। देवी के गले में हड्डियों की माला तथा कंधे पर यज्ञोपवीत है। इसलिए शांत भाव से इनकी उपासना करने पर यह अपने शांत स्वरूप को प्रकट करती हैं। उग्र रूप में उपासना करने पर यह उग्र रूप में दर्शन देती हैं जिससे साधक के उच्चाटन होने का भय रहता है।
माता का स्वरूप अतयंत गोपनीय है। चतुर्थ संध्याकाल में मां छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्ध प्राप्त हो जाती है। कृष्ण और रक्त गुणों की देवियां इनकी सहचरी हैं। पलास और बेलपत्रों से छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि की जाती है। इससे प्राप्त सिद्धियां मिलने से लेखन बुद्धि ज्ञान बढ़ जाता है। शरीर रोग मुक्त होता हैं। सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु परास्त होते हैं। यदि साधक योग, ध्यान और शास्त्रार्थ में साधक पारंगत होकर विख्यात हो जाता है।
कामाख्या के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिके मंदिर काफी लोकप्रिय है। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 79 किलोमीटर की दूरी रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिके का यह मंदिर है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है।छीन्नमस्ता का मंत्र रूद्राक्ष माला से जपना चाहिए।मां छिन्नमस्ता का स्वरूप गोपनीय है। इनका सर कटा हुआ है। इनके बंध से रक्त की तीन धारायें निकल रही है। जिस में से दो धारायें उनकी सहस्तरीयां और एक धारा स्वयं देवी पान कर रही है। चतुर्थ, संध्या काल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्धि हो जाती है। राहु इस महाविद्या का अधिष्ठाता ग्रह है। 
देवी छिन्नमस्ता बहुत ही जल्द शत्रुओं का विनाश कर सकती हैं। इसके अलावा अवाक सिद्धि, रोजगार में अचूक सफलता, नौकरी में पदोन्नति और कोर्ट केस में सफलता भी हासिल होती है। इसके अलावा पति या पत्नी को अपने वश में रखने के लिए भी देवी छिन्नमस्ता की आराधना की जाती है।  

देवी को प्रसन्न करने का मंत्र है 
*“श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाह”।
 *"क्रीं ह्रीं छिन्मस्तिका ह्रीं क्रीं स्वाहा:"

इनकी पूजा करें तो दुष्टों का नाश होता है तथा उस व्यक्ति के तमो गुन और रजो गुन का भी नाश होता है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उनके काम वासना को नियंत्रित करता है.

छठा दिन: माँ भैरवी
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छठे दिन की महा देवी माँ भैरवी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को नैरित कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए।नैरित कोण दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच का कोण होता है।आगम ग्रंथों के अनुसार त्रिपुर भैरवी एकाक्षर रूप है। त्रिपुर भैरवी की उपासना से सभी बंधन दूर हो जाते हैं। यह बंदीछोड़ माता है। भैरवी के नाना प्रकार के भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं।
माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इन्हें षोडशी भी कहा जाता है। षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है। इसकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है। जल, थल और नभ में उसका वर्चस्व कायम होता है। आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।

जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। इसकी साधना से धन सम्पदा की प्राप्ति होती है, मनोवांछित वर या कन्या से विवाह होता है। षोडशी का भक्त कभी दुखी नहीं रहता है।

देवी कथा : नारद-पाञ्चरात्र के अनुसार एक बार जब देवी काली के मन में आया कि वह पुनः अपना गौर वर्ण प्राप्त कर लें तो यह सोचकर देवी अन्तर्धान हो जाती हैं। भगवान शिव जब देवी को को अपने समक्ष नहीं पाते तो व्याकुल हो जाते हैं और उन्हें ढूंढने का प्रयास करते हैं। शिवजी, महर्षि नारदजी से देवी के विषय में पूछते हैं तब नारदजी उन्हें देवी का बोध कराते हैं वह कहते हैं कि शक्ति के दर्शन आपको सुमेरु के उत्तर में हो सकते हैं। वहीं देवी की प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात संभव हो सकेगी। तब भोले शिवजी की आज्ञानुसार नारदजी देवी को खोजने के लिए वहां जाते हैं। महर्षि नारदजी जब वहां पहुंचते हैं तो देवी से शिवजी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखते हैं यह प्रस्ताव सुनकर देवी क्रुद्ध हो जाती हैं और उनकी देह से एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट होता है और इस प्रकार उससे छाया विग्रह ‘त्रिपुर-भैरवी’ का प्राकट्य होता है।
शत्रु संहार एवं तीव्र तंत्र बाधा निवारण के लिये भगवती त्रिपुर भैरवी महाविद्या साधना बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। इससे साधक के सौंदर्य में निखार आ जाता है। इस का रंग लाल है और यह लाल रंग के वस्त्र पहनती हैं। गले में मुंडमाला है तथा कमलासन पर विराजमान है। त्रिपुर भैरवी का मुख्य लाभ बहुत कठोर साधना से मिलता है। 
किसी भी प्रकार के तांत्रिक समाधान के लिए त्रिपुर भैरवी साधना की जाती है। यह साधना प्रेत आत्माओं के लिए काफी खतरनाक है। इसके अलावा ऐसे व्यक्ति जो आकर्षक जीवनसाथी की ख्वाहिश रखते हैं उनके लिए यह साधना फायदेमंद है। किसी भी बुरे तांत्रिक प्रभाव से मुक्ति और शीघ्र विवाह के लिए भी इस सिद्धि को प्राप्त किया जाता है। मूंगे की माला से त्रिपुर 

भैरवी की आराधना की जानी चाहिए, 
इस सिद्धि को प्राप्त करने का मंत्र है 
*“ॐ ह्रीं भैरवी कलौंह्रीं स्वाहा:”।
*"क्रीं ह्रीं भैरवी ह्रीं क्रीं स्वाहा:"

इनका जाप करें तो दुष्टों का नाश होता है तथा अकाल मृत्यु , दुष्टात्मा के प्रभाव से बचाव होता है

सातवाँ दिन: माँ धूमावती
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सातवें दिन की महा देवी माँ धूमावती स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को पश्चिम कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। धूमावती का कोई स्वामी नहीं है। इसलिए यह विधवा माता मानी गई है। इनकी साधना से जीवन में निडरता और निश्चंतता आती है। इनकी साधना या प्रार्थना से आत्मबल का विकास होता है। इस महाविद्या के फल से देवी धूमावती सूकरी के रूप में प्रत्यक्ष प्रकट होकर साधक के सभी रोग अरिष्ट और शत्रुओं का नाश कर देती है। प्रबल महाप्रतापी तथा सिद्ध पुरूष के रूप में उस साधक की ख्याति हो जाती है।
मां धूमावती महाशक्ति स्वयं नियंत्रिका हैं। ऋग्वेद में रात्रिसूक्त में इन्हें ‘सुतरा’ कहा गया है। अर्थात ये सुखपूर्वक तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट को दूर करने वाली मां कहा गया है।
इस महाविद्या की सिद्धि के लिए तिल मिश्रित घी से होम किया जाता है। धूमावती महाविद्या के लिए यह भी जरूरी है कि व्यक्ति सात्विक और नियम संयम और सत्यनिष्ठा को पालन करने वाला लोभ-लालच से दूर रहें। शराब और मांस  को छूए तक नहीं।

 इसकी उपासना से विपत्ति नाश, रोग निवारण व युद्ध में विजय प्राप्त होती है।बुरी नजर और दरिद्रता से मुक्ति, तंत्र-मंत्र, जादू-टोने, भूत-प्रेत के डर से मुक्ति पाने के लिए धूमावती मां की सिद्धि प्राप्त की जाती है। धूमावती देवी, जीवन की हर मुश्किल का समाधान करती है। धूमावती मां की आराधना करने के लिए मोती या काले हकीक की माला से करनी चाहिए। देवी का मंत्र जाप मोती की माला से करनी चाहिए।

धूमावती मां की आराधना करने का मंत्र है 
*“ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:”।
*क्रीं ह्रीं धूमावती ह्रीं क्रीं स्वाहा"

इनका जाप करें तो उनके घर से रोग, कलह, दरिद्रता का नाश होता है.

आठवां दिन: माँ बंगलामुखी
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आठवे दिन की महा देवी माँ बंगलामुखी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को भंडार कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। भंडार कोण पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच का कोण होता है।माता बगलामुखी की साधना युद्ध में विजय होने और शत्रुओं के नाश के लिए की जाती है। बगला मुखी के देश में तीन ही स्थान है। कृष्ण और अर्जुन ने महाभातर के युद्ध के पूर्व माता बगलामुखी की पूजा अर्चना की थी। इनकी साधना शत्रु भय से मुक्ति और वाक् सिद्धि के लिए की जाती है।
जिसकी साधना सप्तऋषियों ने वैदिक काल में समय समय पर की है। इसकी साधना से जहां घोर शत्रु अपने ही विनाश बुद्धि से पराजित हो जाते हैं वहां साधक का जीवन निष्कंटक तथा लोकप्रिय बन जाता है।
बगलामुखी का मंत्र: हल्दी या पीले कांच की माला से करनी चाहिए।
भारत में मां बगलामुखी के तीन ही प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर माने गए हैं जो क्रमश: दतिया (मध्यप्रदेश), कांगड़ा (हिमाचल) तथा नलखेड़ा जिला शाजापुर (मध्यप्रदेश) में हैं। तीनों का अपना अलग-अलग महत्व है।
शत्रु बाधा को पूर्णतः समाप्त करने के लिये बहुत महत्वपूर्ण साधना है। इस विद्या के द्वारा दैवी प्रकोप की शांति, धन-धान्य प्राप्ति, भोग और मोक्ष दोनों की सिद्धि होती है। इसके तीन प्रमुख उपासक ब्रह्मा, विष्णु व भगवान परशुराम रहे हैं। परशुराम जी ने यह विद्या द्रोणाचार्य जी को दी थी और देवराज इंद्र के वज्र को इसी बगला विद्या के द्वारा निष्प्रभावी कर दिया था। युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण के परामर्श पर कौरवों पर विजय प्राप्त करने के लिये बगलामुखी देवी की ही आराधना की थी। मां बगलामुखी के प्रसिद्ध शक्ति पीठ निम्न स्थानों पर हैं। दतिया: यहां मां बगलामुखी का ऐतिहासिक मंदिर है। यह पीतांबरा शक्ति पीठ के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा अमर होने के कारण आज भी इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने आते हैं। 
हर प्रकार की समस्या का समाधान और किसी भी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के लिए बगलामुखी साधना की जाती है। सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए, शत्रुओं का विनाश करने और कोर्ट कचहरी के मसलों में विजय होने के लिए बगलामुखी साधना की जाती है। 

बगलामुखी साधना मंत्र:-
*ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ॐ नम:”।
*क्रीं ह्रीं बंगलामुखी ह्रीं क्रीं स्वाहा"

माँ बंगलामुखी का जाप ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिनके ऊपर किसी तांत्रिक क्रिया को कराया जा रहा हो और जिस से वो परेशान हो। इस मंत्र का जाप करने से वैसे दुष्ट व्यक्तियों का नाश होता है। इनका जाप करते समय साधक को पीला वस्त्र धारण करना चाहिए और पीले माला से जाप करना चाहिए। उस माला को जाप ख़त्म होने के बाद किसी पीपल के पेड़ पर टांग देना चाहिए.

नौवां दिन: माँ मातंगी
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नौवे दिन की महा देवी माँ मातंगी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को पृथ्वी की ओर मुख करके करनी चाहिए।मतंग शिव का नाम है। शिव की यह शक्ति असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली है। गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए लोग इनकी पूजा करते हैं। अक्षय तृतीया अर्थात वैशाख शुक्ल की तृतीया को इनकी जयंती आती है।
यह श्याम वर्ण और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करती हैं। यह पूर्णतया वाग्देवी की ही पूर्ति हैं। चार भुजाएं चार वेद हैं। मां मातंगी वैदिकों की सरस्वती हैं।पलास और मल्लिका पुष्पों से युक्त बेलपत्रों की पूजा करने से व्यक्ति के अंदर आकर्षण और स्तम्भन शक्ति का विकास होता है। ऐसा व्यक्ति जो मातंगी महाविद्या की सिद्धि प्राप्त करेगा, वह अपने क्रीड़ा कौशल से या कला संगीत से दुनिया को अपने वश में कर लेता है। वशीकरण में भी यह महाविद्या कारगर होती है।
मातंगी माता का मंत्र: स्फटिक की माला से जपना चाहिए।इस नौवीं महा विद्या की साधना से सुखी, गृहस्थ जीवन, आकर्षक और ओजपूर्ण वाणी तथा गुणवान पति या पत्नी की प्राप्ति होती है। इनकी साधना वाम मार्गी साधकों में अधिक प्रचलित है।
घर-गृहस्थी के मामलों में आने वाली बाधाओं से मुक्ति पाने के लिए मातंगी आराधना की जाती है। पुत्र प्राप्ति, विवाह में आने वाली परेशानियों के समाधान के लिए मातंगी मां की आराधना की जाती है। मातंगी मां की सिद्धि प्राप्त करने के बाद स्त्री सहयोग जल्दी और आसानी से मिलने लगता है। मातंगी मां की आराधना स्फटिक की माला से करनी चाहिए।

मंत्र:-
*ॐ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी ह्रीं स्वाहा:”।
*क्रीं ह्रीं मातंगी ह्रीं क्रीं स्वाहा

माँ मातंगी का जाप ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिनके जीवन में माता के प्रेम की कमी हो अथवा उनकी माता को कोई कष्ट हो। जो किसान आकाल या बाढ़ से पीड़ित होते है वे भी माँ मातंगी का अगर सामूहिक रूप से जाप करे तो अकाल या बढ़ का प्रभाव कम होता है.

दसवां दिन: माँ कमला
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दसवें दिन की महा देवी माँ कमला स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को आकाश की ओर मुख करके करनी चाहिए।मां कमला कमल के आसन पर विराजमान रहती है। श्वेत रंग के चार हाथी अपनी संूडों में जल भरे कलश लेकर इन्हें स्नान कराते हैं। शक्ति के इस विशिष्ट रूप की साधना से दरिद्रता का नाश होता है और आय के स्रोत बढ़ते हैं। जीवन ‘सुखमय होता है। यह दुर्गा का सर्व सौभाग्य रूप है। जहां कमला है वहां विष्णु है। शुक्र इनका अधिष्ठातृ ग्रह है।
दरिद्रता, संकट, गृहकलह और अशांति को दूर करती है कमलारानी। इनकी सेवा और भक्ति से व्यक्ति सुख और समृद्धि पूर्ण रहकर शांतिमय जीवन बिताता है।कमल पर आसीन कमल पुष्प धारण किए हुए मां सुशोभित होती हैं। समृद्धि, धन, नारी, पुत्रादि के लिए इनकी साधना की जाती है। इस महाविद्या की साधना नदी तालाब या समुद्र में गिरने वाले जल में आकंठ डूब कर की जाती है। इसकी पूजा करने से व्यक्ति साक्षात कुबेर के समान धनी  और विद्यावान होता है। व्यक्ति का यश और व्यापार या प्रभुत्व संसांर भर में प्रचारित हो जाता है।

अखंड धन-दौलत की स्वामिनी देवी कमला की आराधना करने के बाद ही इन्द्र ने अब तक स्वर्ग का शासन संभालकर रखा हुआ है। संसार की सारी खूबसूरती देवी कमला की ही कृपा मानी जाती है। इनकी आराधना करने के लिए कमलगट्टे की माला से करनी चाहिए।

देवी कमला की आराधना करने का मंत्र है 
*ॐ हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा:”।
*क्रीं ह्रीं कमला ह्रीं क्रीं स्वाहा:" 

माँ कमला का जाप दसो महाविद्या में सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। इनका जाप करने वाले जीवन में कभी भी दरिद्र नही होते। शास्त्रों में कहा गया है की जो माँ कमला की साधना करते हैं उन्हे सभी प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं।

*** पार्वती सवरूप दुर्गा से प्रगटी दश महाविद्या शाबर मन्त्र ***
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सत नमो आदेश । गुरुजी को आदेश । ॐ गुरुजी । ॐ सोऽहं सिद्ध की काया, तीसरा नेत्र त्रिकुटी ठहराया । गगण मण्डल में अनहद बाजा । वहाँ देखा शिवजी बैठा, गुरु हुकम से भितरी बैठा, शुन्य में ध्यान गोरख दिठा । यही ध्यान तपे महेशा, यही ध्यान ब्रह्माजी लाग्या । यही ध्यान विष्णु की माया ! ॐ कैलाश गिरी से, आयी पार्वती देवी, जाकै सन्मुख बैठ गोरक्ष योगी,देवी ने जब किया आदेश । नहीं लिया आदेश, नहीं दिया उपदेश । सती मन में क्रोध समाई, देखु गोरख अपने माही,नौ दरवाजे खुले कपाट, दशवे द्वारे अग्नि प्रजाले, जलने लगी तो पार पछताई । राखी राखी गोरख राखी, मैं हूँ तेरी चेली, संसार सृष्टि की हूँ मैं माई । कहो शिवशंकर स्वामीजी, गोरख योगी कौन है दिठा । यह तो योगी सबमें विरला, तिसका कौन विचार । हम नहीं जानत,अपनी करणी आप ही जानी । गोरख देखे सत्य की दृष्टि । दृष्टि देख कर मन भया उनमन, तब गोरख कली बिच कहाया । हम तो योगी गुरुमुख बोली, सिद्धों का मर्म न जाने कोई । कहो पार्वती देवीजी अपनी शक्ति कौन-कौन समाई । तब सती ने शक्ति की खेल दिखायी, दस महाविद्या की
प्रगटली ज्योति ।
प्रथम ज्योति महाकाली प्रगटली ।
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।। महाकाली ।।
ॐ निरंजन निराकार अवगत पुरुष तत सार, तत सार मध्ये ज्योत, ज्योत मध्ये
परम ज्योत, परम ज्योत मध्ये उत्पन्न भई माता शम्भु शिवानी काली ओ काली काली महाकाली, कृष्णवर्णी, शव वहानी, रुद्र की पोषणी, हाथ खप्पर खडग धारी, गले मुण्डमाला हंस मुखी । जिह्वा ज्वाला दन्त काली । मद्यमांस कारी श्मशान की राणी । मांस खाये रक्त-पी-पीवे । भस्मन्ति माई जहाँ
पर पाई तहाँ लगाई । सत की नाती धर्म की बेटी इन्द्र की साली काल की
काली जोग की जोगीन, नागों की नागीन मन माने तो संग रमाई नहीं तो श्मशान फिरे अकेली चार वीर अष्ट भैरों, घोर काली अघोरकाली अजर बजर अमर काली भख जून निर्भय काली बला भख, दुष्ट को भख, काल भख पापी पाखण्डी को भख जती सती को रख, ॐ काली तुम बाला ना वृद्धा,
देव ना दानव, नर ना नारी देवीजी तुम तो हो परब्रह्मा काली ।
क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ।

द्वितीय ज्योति तारा त्रिकुटा तोतला प्रगटी ।
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।। तारा ।।
ॐ आदि योग अनादि माया जहाँ पर ब्रह्माण्ड उत्पन्न भया । ब्रह्माण्ड समाया
आकाश मण्डल तारा त्रिकुटा तोतला माता तीनों बसै ब्रह्म कापलि, जहाँ पर
ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पत्ति, सूरज मुख तपे चंद मुख अमिरस पीवे,अग्नि मुख जले, आद कुंवारी हाथ खण्डाग गल मुण्ड माल, मुर्दा मार ऊपर खड़ी देवी तारा । नीली काया पीली जटा, काली दन्त में जिह्वा दबाया । घोर तारा
अघोर तारा, दूध पूत का भण्डार भरा । पंच मुख करे हां हां ऽऽकारा,डाकिनी शाकिनी भूत पलिता सौ सौ कोस दूर भगाया ।चण्डी तारा फिरे ब्रह्माण्डी तुम तो हों तीन लोक की जननी ।
ॐ ह्रीं स्त्रीं फट्, ॐ ऐं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट्

तृतीय ज्योति त्रिपुर सुन्दरी प्रगटी ।
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।। षोडशी-त्रिपुर सुन्दरी ।।
ॐ निरञ्जन निराकार अवधू मूल द्वार में बन्ध लगाई पवन पलटे गगन समाई,
ज्योति मध्ये ज्योत ले स्थिर हो भई ॐ मध्याः उत्पन्न भई उग्र त्रिपुरा सुन्दरी शक्ति आवो शिवधर बैठो, मन उनमन, बुध सिद्ध चित्त में भया नाद। तीनों एक त्रिपुर सुन्दरी भया प्रकाश । हाथ चाप शर धर एक हाथ अंकुश । त्रिनेत्रा अभय मुद्रा योग भोग की मोक्षदायिनी ।इडा पिंगला सुषम्ना देवी नागन जोगन त्रिपुर सुन्दरी । उग्र बाला,रुद्र बाला तीनों ब्रह्मपुरी में भया उजियाला । योगी के घर जोगन बाला, ब्रह्मा विष्णु शिव की माता ।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं हसकहल ह्रीं सकल ह्रीं सोःऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ।

चतुर्थ ज्योति भुवनेश्वरी प्रगटी ।
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।। भुवनेश्वरी ।।
ॐ आदि ज्योति अनादि ज्योत ज्योत मध्ये परम ज्योत परम ज्योति मध्ये शिव
गायत्री भई उत्पन्न, ॐ प्रातः समय उत्पन्न भई देवी भुवनेश्वरी । बाला सुन्दरी कर धर वर पाशांकुश अन्नपूर्णी दूध पूत बल दे बालका ऋद्धि सिद्धि भण्डार भरे, बालकाना बल दे जोगी को अमर काया । चौदह भुवन का राजपाट संभाला कटे रोग योगी का, दुष्ट को मुष्ट, काल कन्टक मार । योगी बनखण्ड
वासा, सदा संग रहे भुवनेश्वरी माता ।
ह्रीं

पञ्चम ज्योति छिन्नमस्ता प्रगटी ।
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।। छिन्नमस्ता ।।
सत का धर्म सत की काया, ब्रह्म अग्नि में योग जमाया । काया तपाये जोगी (शिव गोरख) बैठा, नाभ कमल पर छिन्नमस्ता, चन्द सूर में उपजी सुष्मनी देवी, त्रिकुटी महल में फिरे बाला सुन्दरी, तन का मुन्डा हाथ में लिन्हा, दाहिने हाथ में खप्पर धार्या। पी पी पीवे रक्त, बरसे त्रिकुट मस्तक पर अग्नि प्रजाली, श्वेत वर्णी मुक्त केशा कैची धारी । देवी उमा की शक्ति छाया, प्रलयी खाये सृष्टि सारी । चण्डी, चण्डी फिरे ब्रह्माण्डी भख भख बाला भख दुष्ट को मुष्ट जती,सती को रख, योगी घर जोगन बैठी, श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने भाखी । छिन्नमस्ता जपो जाप, पाप कन्टन्ते आपो आप, जो जोगी करे सुमिरण पाप पुण्य से न्यारा रहे । काल ना खाये ।
श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र-वैरोचनीये हूं हूं फट् स्वाहा ।

षष्टम ज्योति भैरवी प्रगटी ।
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।। भैरवी ।।
ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटा, गले में माला मुण्डन की । अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती ! काला खप्पर हाथ खंजर,कालापीर धर्म धूप खेवन्ते वासना गई सातवें पाताल, सातवें पाताल मध्ये परम-तत्त्व परम-तत्त्व में जोत, जोत में परम जोत, परम जोत में भई उत्पन्न काल-भैरवी, त्रिपुर-भैरवी, सम्पत्त-प्रदा-भैरवी,कौलेश-भैरवी, सिद्धा-भैरवी, विध्वंसिनि-भैरवी,चैतन्य-भैरवी, कामेश्वरी-भैरवी, षटकुटा-भैरवी, नित्या-भैरवी । जपा अजपा गोरक्ष जपन्ती यही मन्त्र मत्स्येन्द्रनाथजी को सदा शिव ने कहायी । ऋद्ध फूरो सिद्ध फूरो सत श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी अनन्त कोट सिद्धा ले उतरेगी काल के पार,भैरवी भैरवी खड़ी जिन शीश पर, दूर हटे काल जंजाल भैरवी मन्त्र बैकुण्ठ वासा । अमर लोक में हुवा निवासा ।
ॐ ह्सैं ह्स्क्ल्रीं ह्स्त्रौः

सप्तम ज्योति धूमावती प्रगटी
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।। धूमावती ।।
ॐ पाताल निरंजन निराकार, आकाश मण्डल धुन्धुकार, आकाश दिशा से कौन आये,कौन रथ कौन असवार, आकाश दिशा से धूमावन्ती आई, काक ध्वजा का रथ अस्वार आई थरै आकाश, विधवा रुप लम्बे हाथ, लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव, डमरु बाजे भद्रकाली, क्लेश कलह कालरात्रि । डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी । जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाजा जीया आकाश तेरा होये ।धूमावन्तीपुरी में वास, न होती देवी न देव तहा न होती पूजा न पाती तहा न होती जात न जाती तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ आप भयी अतीत ।
ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा ।

अष्टम ज्योति बगलामुखी प्रगटी ।
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।। बगलामुखी ।।
ॐ सौ सौ दुता समुन्दर टापू, टापू में थापा सिंहासन पिला । संहासन पीले
ऊपर कौन बसे । सिंहासन पीला ऊपर बगलामुखी बसे,बगलामुखी के कौन संगी कौन साथी ।कच्ची बच्ची काक-कूतिया-स्वान-चिड़िया, ॐ बगला बाला
हाथ मुद्-गर मार, शत्रु हृदय पर सवार तिसकी जिह्वा खिच्चै बाला ।
बगलामुखी मरणी करणी उच्चाटण धरणी,अनन्त कोट सिद्धों ने मानी ॐ बगलामुखी रमे ब्रह्माण्डी मण्डे चन्दसुर फिरे खण्डे खण्डे । बाला बगलामुखी नमो नमस्कार ।
ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भन-बाणाय धीमहि तन्नो बगला प्रचोदयात् ।

नवम ज्योति मातंगी प्रगटी ।
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।। मातंगी ।।
ॐ शून्य शून्य महाशून्य, महाशून्य में ॐ-कार, ॐ-कार में शक्ति,शक्ति अपन्ते उहज आपो आपना, सुभय में धाम कमल में विश्राम, आसन बैठी, सिंहासन बैठी पूजा पूजो मातंगी बाला,शीश पर अस्वारी उग्र उन्मत्त मुद्राधारी, उद
गुग्गल पाण सुपारी, खीरे खाण्डे मद्य-मांसे घृत-कुण्डे सर्वांगधारी । बुन्द मात्रेन कडवा प्याला, मातंगी माता तृप्यन्ते ।ॐ मातंगी-सुन्दरी, रुपवन्ती,
कामदेवी, धनवन्ती, धनदाती, अन्नपूर्णी अन्नदाती, मातंगी जाप मन्त्र जपे काल का तुम काल को खाये ।तिसकी रक्षा शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी करे ।
ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा ।

दसवीं ज्योति कमला प्रगटी ।
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।। कमला ।।
ॐ अ-योनी शंकर ॐ-कार रुप, कमला देवी सती पार्वती का स्वरुप । हाथ में सोने का कलश, मुख से अभयमुद्रा । श्वेत वर्ण सेवा पूजा करे, नारद इन्द्रा । देवी देवत्या ने किया जयॐ-कार । कमला देवी पूजो केशर पान सुपारी, चकमक चीनी फतरी तिल गुग्गल सहस्र कमलों का किया हवन । कहे गोरख, मन्त्र जपो जाप जपो ऋद्धि सिद्धि की पहचान गंगा गौरजा पार्वती जान । जिसकी तीन लोक में भया मान ।कमला देवी के चरण कमल को आदेश ।

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्ध-लक्ष्म्यै नमः ।

सुनो पार्वती हम मत्स्येन्द्र पूता, आदिनाथ नाती, हम शिव स्वरुप उलटी थापना थापी योगी का योग, दस विद्या शक्ति जानो, जिसका भेद शिव शंकर ही पायो । सिद्ध योग मर्म जो जाने विरला तिसको प्रसन्न भयी महाकालिका । योगी योग नित्य करे प्रातः उसे वरद भुवनेश्वरी माता । सिद्धासन सिद्ध, भया श्मशानी तिसके संग बैठी बगलामुखी । जोगी खड दर्शन को कर जानी, खुल गया ताला ब्रह्माण्ड भैरवी । नाभी स्थाने उडीय्यान बांधी मनीपुर चक्र में
बैठी, छिन्नमस्ता रानी । ॐ-कार ध्यान लाग्या त्रिकुटी, प्रगटी तारा बाला सुन्दरी । पाताल जोगन(कुण्डलिनी) गगन को चढ़ी, जहां पर बैठी त्रिपुर
सुन्दरी । आलस मोड़े, निद्रा तोड़े तिसकी रक्षा देवी धूमावन्ती करें । हंसा जाये दसवें द्वारे देवी मातंगी का आवागमन खोजे । जो कमला देवी की धूनी चेताये तिसकी ऋद्धि सिद्धि से भण्डार भरे । जो दसविद्या का सुमिरण करे । पाप पुण्य से न्यारा रहे । योग अभ्यास से भये सिद्धा आवागमन निवरते । मन्त्र पढ़े सो नर अमर लोक में जाये । इतना दस महाविद्या मन्त्र जाप सम्पूर्ण भया । अनन्त कोट सिद्धों में, गोदावरी त्र्यम्बक क्षेत्र अनुपान शिला, अचलगढ़ पर्वत पर बैठ श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने पढ़ कथ कर सुनाया श्रीनाथजी गुरुजी को आदेश आदेश।।    

          ||मेरी भक्ति गुरु की शक्ति,फुरो मंत्र ईश्वरो वाँचा|| ******************************************************* 
     साधना एवं पूजन मार्ग दर्शन एवं पूर्ण विधि जानकर ही करे ******************************************************* 
इस पोस्ट पे दिए गए वैदिक-साबर मंत्र,गुरु, गुरुतुल्य साधु-संतो,साधको, भक्तों,प्राचीन ग्रंथो,प्राचीन साहित्यों एवं किताबो द्वारा संकलित किये गए है जो हमारे सनातन धर्म की धरोहर है इन सभी प्राचीन साहित्य एवं विद्या को भविष्य के लिए सुरक्षित करना और इनका प्रचार करना है ही हमारा उद्देश्य है जो की आज के समय में लगातार लुप्त होते जा रही है। ऐसी अवस्था में यदि किसी सज्जन के ©कॉपी राइट अधिकार का उलंघन होने से कृप्या क्षमा करे। ******************************************************* चेतावनी-हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे ।हमारा उद्देश्य केवल विषय से परिचित कराना है। किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में विशेषज्ञ से परामर्श ले। साधको को चेतावनी दी जाती है की वे बिना गुरु निर्देशन के साधनाए ना करे। अन्यथा प्राण हानि भी संभव है। यह केवल सुचना ही नहीं चेतावनी भी है। भिलाई,छत्तीसगढ़ +919827374074(whatsapp)न्यायलय क्षेत्र दुर्ग छत्तीसगढ़ *************************************************************        *********************राहुलनाथ********************************
*******************जयश्रीमहाकाल*****************************

शनिवार, 3 सितंबर 2016

आठवी गाँठ ।।आत्मा की मुक्ति

।।आठवी गाँठ ।।आत्मा की मुक्ति
मैं हिंदू हूँ,मैं मुसलमान हूँ ,मैं सिख हूँ ,ईसाई हूँ ,यहूदी हूँ ,फ़ारसी हूँ दलित हूँ ,चमार हूँ ,ब्राह्मण हूँ ,वैश्य हूँ ये सब बंधनो का ही नाम है।

आत्मा पाँच तत्वों से बना शरीर है,अंतिम संस्कार के बाद चार तत्वों को खो कर आत्मा मात्र आकाश तत्व में परिवर्तित हो जाता है ।आकाश तत्व का गुण वाणी है आवाज है इसी कारण ,प्रेत या आत्मा लोग में विचरण करता आत्मा,मात्र सुन सकता है किन्तु अग्नि तत्व से बनी आँखे नहीं होने के कारण वो आपकी बातो को पढ़ नहीं सकता।शायद यही कारण है की मृत्यु के बाद आत्मा की शान्ति के लिए गरुड़ पुराण या अन्य जानकारियां आत्मा को मरने के बाद सुनाई जाती है क्योकि जीते जी आत्मा के पास इतना समय ही नहीं होता की वो मुक्ति के मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर सके और मृत्यु के बाद समय ही समय होता है इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए।अतः आपके द्वारा इस सम्बन्ध में बाते सुन कर वो आपके ऊपर प्रतिक्रिया करता है ।उसकी बुराई करने से बुरा एवं उसकी स्तुति करने से अच्छा फल देता है और इस आत्मा की दुनिया में वो मनुष्यो या रिश्तेदारो पे निर्भर रहता है।
इसीकारण आप इस विषय पे जितना अध्ययन करेगे उतना लाभ ही होगा किन्तु इस समबन्ध में वाद-विवाद आपको पाताल की गहराइयो में ले जा सकता है।इस आकाश तत्व का भी,विलीन हो जाना ही मुक्ति है।योनि या शरीर क्या है? मात्र एक ऐसी जल की बूँद जो कुछ समय के लिए सागर से अलग हो जाती है और कुछ समय बाद वो फिर उस सागर में समा जाती है। लेकिन आत्मा का सफ़र इससे भी आगे है हमें सागर भी नहीं बनना ,सागर भी तो ईश्वर ने ही बनाया ,सागर बनना भी मुक्ति नहीं ,सागर बनना भी कामना मात्र है।कुछ और ही मार्ग है आत्मा का,कोई और ही मंजिल है।जहाँ मैं और तु का भाव नहीं होता।जहाँ कोई बंधन नहीं होता कोई गाँठ नहीं होती।
किन्तु मैंने देखा यहाँ लोगो को मुर्दो की पूजा और इनका गुण गान ही परोसा जा रहा है ये आपको मुर्दो तक पहुचा रहे है ,उनके बारे में बात करने के लिए प्रेरित कर रहे है ।उनके अनुयायी अपने मुर्दा गुरुओ की स्तुति बढा चढ़ा कर ,चमत्कारी कहानियो के रूप में बता रहे है और गुरु के शांत होने के बाद उनकी गद्दियों से लगातार व्यवसाय कर रहे है।यहाँ व्यवसाय भी करे तो अच्छी बात है किन्तु समस्या इस बात की है की वे अपने मुर्दे को महान और दूसरे के मुर्दो को शैतान बताने की कोशिश कर रहे है।जीते जी तो मानव एक साथ एक भावना से नहीं रहता और मरने के बाद भी उनके अनुयायी उन्हें एक नहीं होने देते।
मुर्दा तो मुर्दा ही होगा ,फिर वो चाहे हिन्दू का हो मुस्लिम का या किसी भी अन्य धर्म का।मित्रों स्मरण रहे कोई कितना बड़ा ही सिद्ध हो,संत हो,फ़क़ीर हो या बाबा मरने के बाद मुर्दा ही बनेगा ।
भगवान श्री कृष्ण ने गीताजी में मुर्दो की पूजा या साधना करने के लिए मना किया है।उन्होंने कहा है जो जिसकी पूजा करता है वो उसी के लोक में जाता है।
आप जिस बाबाजी से ,संत से ,मौलवी से या पादरी से आशीर्वाद की इच्छा रखते है विश्वास रखते है उतना विश्वास आप उस मालिक पे क्यों नहीं रखते जो ,इन बाबाजी ,संत ,मौलवी या पादरी को भी आशीर्वाद देने की शक्ति देता है।
आप ईश्वर,अल्लाह,गॉड की शरण क्यों नहीं लेते ।स्वयं के लिए स्वयं प्रार्थना क्यों नहीं करते।किसी के आशीर्वाद पे निर्भर होना भी तो सम्पूर्णता नहीं है ,वो मालिक आपको जब भी आशीर्वाद देगा तब पूरा मिलेगा।
आप किसी जाती-धर्म से ,सम्प्रदाय से ना जुड़े ,किसी भी रिश्ते में बंधना तो एक गाँठ ही है क्योकि बिना गाँठ के रस्सी में जोड़ संभव नहीं है जब तक ये बंधन नहीं खुलेंगे आपकी मुक्ति नहीं होगी ।
मैं हिंदू हूँ,मैं मुसलमान हूँ ,मैं सिख हूँ ,ईसाई हूँ ,यहूदी हूँ ,फ़ारसी हूँ दलित हूँ ,चमार हूँ ,ब्राह्मण हूँ ,वैश्य हूँ ये सब बंधनो का ही नाम है।
मुक्त हो जाइए।इन बंधनो से ।खोल दीजिये हर भीतर के बंधन को हर गाँठ को।इन गाँठों को खोलते ही आपको आपके भीतर ही गुरु की प्राप्रि होगी।एक ऐसा गुरु जो कोई हाड मॉस का पुतला नहीं ,मात्र एक तत्व स्वरूप है।
जब आप साधना के मार्ग पे चलतेे है तो गुरु आपके साथ सातवे चक्र तक ही चलते है या फिर ऐसा कहे की, गुरु सात गाँठ ही खोलते है आगे का सफ़र साधक को स्वयं ही काटना होता है।इस आखरी "आठवी गाँठ "को साधक को स्वयं ही खोलना होता है।
*****जयश्री महाकाल****
(व्यक्तिगत अनुभूति एवं विचार )
******राहुलनाथ********
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फेसबुक परिचय:-
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।। श्री गुरुचरणेभ्यो नमः।।
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चेतावनी-हमारे लेखो में लिखे गए सभी नियम,सूत्र,तथ्य हमारी निजी अनुभूतियो के स्तर पर है। लेखो को पढने के बाद पाठक उसे माने ,इसके लिए वे बाध्य नहीं है।हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में अपने योग्य विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श ले।बिना लेखक की लिखितअनुमति के लेख के किसी भी अंश का कॉपी-पेस्ट ,या कही भी प्रकाषित करना वर्जित है।न्यायलय क्षेत्र दुर्ग छत्तीसगढ़
(©कॉपी राइट एक्ट 1957)


गुरुवार, 1 सितंबर 2016

नजर टोना उतारा मन्त्र

नजर टोना उतारा मन्त्र

काली काली महाकाली , 
ब्रह्मा की बेटी इंद्र की साली, 
दोनों हाथ बजावे ताली | 
हंकिनी डंकिनी को भस्म करे , 
अल्लाह बिस्मिल्लाह को भस्म करे |
भुत नाथ चौरासी शैतानो को भस्म करे ,
नौ नरसिंह सोलह सीन्डुओं को भस्म करे |
बावन वीर , चौंसठ योगिनी को भस्म करे |
अस्सी मसान , नब्बे भैरों को भस्म करे |
लगे लगाए को भस्म करे , भेजे भेजाये को भस्म करे |
भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनी को भस्म करे |
चले काली का खंडा, दुष्ट राक्षस का उड़ जाए मुंडा |
जादू जंतर मंतर तंतर को कर दे भस्म |
जय काली कलकत्ते वाली मेरा वचन न जाये खाली  |
तेरी आन गुरु की शान 
फुरो मंत्र कर (रोगी का या स्वयं का नाम )कल्याण ||

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||मेरी भक्ति गुरु की शक्ति,फुरो मंत्र ईश्वरो वाँचा||

।।राहुलनाथ ।।
{साधक,ज्योतिष,वास्तु ,एवं आध्यात्मिक लेखक}
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चेतावनी-हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे ।हमारा उद्देश्य केवल विषय से परिचित कराना है। किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में विशेषज्ञ से परामर्श ले। साधको को चेतावनी दी जाती है की वे बिना गुरु निर्देशन के साधनाए ना करे। अन्यथा प्राण हानि भी संभव है। यह केवल सुचना ही नहीं चेतावनी भी है।बिना लेखक की लिखितअनुमति के लेख के किसी भी अंश का कॉपी-पेस्ट ,या कही भी प्रकाषित करना वर्जित है।न्यायलय क्षेत्र दुर्ग छत्तीसगढ़
(©कॉपी राइट एक्ट 1957)

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||जयश्री महाकाल ।।

रुद्राष्टक

शिव रुद्राष्टक

नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेद: स्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्॥

निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम्॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम्।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्।
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजे अहं भवानीपतिं भाव गम्यम्॥

कलातीत-कल्याण-कल्पांतकारी, सदा सज्जनानन्द दातापुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद-प्रसीद प्रभो मन्माथारी॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परे वा नाराणम्।
न तावत्सुखं शांति संताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभुताधिवासम् ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्।
जरा जन्म दु:खौद्य तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥

रूद्राष्टक इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये,
ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शम्भु प्रसीदति ॥

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||जयश्री महाकाल ।।

सबर शत्रु-मोहन मन्त्रं

शत्रु-मोहन

“चन्द्र-शत्रु राहू पर, विष्णु का चले चक्र।
 भागे भयभीत शत्रु, देखे जब चन्द्र वक्र।
दोहाई कामाक्षा देवी की, फूँक-फूँक मोहन-मन्त्र। 
मोह-मोह-शत्रु मोह, सत्य तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र।। 
तुझे शंकर की आन, सत-गुरु का कहना मान। 
ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”

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शक्ति-शिवात्मक मन्त्र

शक्ति-शिवात्मक मन्त्र

विनियोग

अनयोः शक्ति-शिव-मन्त्रयोः श्री दक्षिणामूर्ति ऋषिः, गायत्र्यनुष्टुभौ छन्दसी, गौरी परमेश्वरी सर्वज्ञः शिवश्च देवते, मम त्रिकाल-दर्शक-ज्योतिश्शास्त्र-ज्ञान-प्राप्तये जपे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यास

श्री दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः शिरसि, गायत्र्यनुष्टुभौ छन्दोभ्यां नमः मुखे, गौरी परमेश्वरी सर्वज्ञः शिवश्च देवताभ्यां नमः हृदि, मम त्रिकाल-दर्शक-ज्योतिश्शास्त्र-ज्ञान-प्राप्तये जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ।

कर-न्यास (अंग-न्यास)ः

ऐं अंगुष्ठभ्यां नमः (हृदयाय नमः), ऐं तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा), ऐं मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट्), ऐं अनामिकाभ्यां हुं (कवचाय हुं), ऐं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् (नेत्र त्रयाय वौषट्), ऐं करतल-करपृष्ठाभ्यां फट् (अस्त्राय फट्)।

ध्यानः

उद्यानस्यैक-वृक्षाधः, परे हैमवते द्विज-

क्रीडन्तीं भूषितां गौरीं, शुक्ल-वस्त्रां शुचि-स्मिताम्।

देव-दारु-वने तत्र, ध्यान-स्तिमित-लोचनम्।।

चतुर्भुजं त्रि-नेत्रं च, जटिलं चन्द्र-शेखरम्।

शुक्ल-वर्णं महा-देवं, ध्याये परममीश्वरम्।।

मानस पूजनः- लं पृथिवी-तत्त्वात्मकं गन्धं समर्पयामि नमः। हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं समर्पयामि नमः। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं घ्रापयामि नमः। रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं दर्शयामि नमः। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि नमः। शं शक्ति-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि नमः।

शक्ति-शिवात्मक मन्त्रः-

“ॐ ऐं गौरि, वद वद गिरि परमैश्वर्य-सिद्ध्यर्थं ऐं। सर्वज्ञ-नाथ, पार्वती-पते, सर्व-लोक-गुरो, शिव, शरणं त्वां प्रपन्नोऽस्मि। पालय, ज्ञानं प्रदापय।”

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