।।ब्रह्माण्ड-पावन श्रीकृष्ण कवच ।।
।।ब्रह्मोवाच।।
राधाकान्त महाभाग ! कवचं यत् प्रकाशितं।
ब्रह्माण्ड-पावनं नाम, कृपया कथय प्रभो ! ।। १
मां महेशं च धर्मं च, भक्तं च भक्त-वत्सल ।
त्वत्-प्रसादेन पुत्रेभ्यो, दास्यामि भक्ति-संयुतः ।। २
।। श्रीकृष्ण उवाच ।।
श्रृणु वक्ष्यामि ब्रह्मेश ! धर्मेदं कवचं परं।
अहं दास्यामि युष्मभ्यं, गोपनीयं सुदुर्लभम्।।१
यस्मै कस्मै न दातव्यं, प्राण-तुल्यं ममैव हि।
यत्-तेजो मम देहेऽस्ति, तत्-तेजः कवचेऽपि च।।२
कुरु सृष्टिमिमं धृत्वा, धाता त्रि-जगतां भव।
संहर्त्ता भव हे शम्भो ! मम तुल्यो भवे भव।।३
हे धर्म ! त्वमिमं धृत्वा, भव साक्षी च कर्मणां।
तपसां फल-दाता च, यूयं भक्त मद्-वरात्।।४
ब्रह्माण्ड-पावनस्यास्य, कवचस्य हरिः स्वयं।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री, देवोऽहं जगदीश्वर!।।५
धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु, विनियोगः प्रकीर्तितः।
त्रि-लक्ष-वार-पठनात्, सिद्धिदं कवचं विधे!।।६
यो भवेत् सिद्ध-कवचो, मम तुल्यो भवेत्तु सः।
तेजसा सिद्धि-योगेन, ज्ञानेन विक्रमेण च।।७
।।मूल-कवच-पाठ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्माण्ड-पावन-कवचस्य श्रीहरिः ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीकृष्णो देवता, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः-श्रीहरिः ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, श्रीकृष्णो देवतायै नमः हृदि, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगाय नमः सर्वांगे।
प्रणवो मे शिरः पातु, नमो रासेश्वराय च।
भालं पायान् नेत्र-युग्मं, नमो राधेश्वराय च।।१
कृष्णः पायात् श्रोत्र-युग्मं, हे हरे घ्राणमेव च।
जिह्विकां वह्निजाया तु, कृष्णायेति च सर्वतः।।२
श्रीकृष्णाय स्वाहेति च, कण्ठं पातु षडक्षरः।
ह्रीं कृष्णाय नमो वक्त्रं, क्लीं पूर्वश्च भुज-द्वयम्।।३
नमो गोपांगनेशाय, स्कन्धावष्टाक्षरोऽवतु।
दन्त-पंक्तिमोष्ठ-युग्मं, नमो गोपीश्वराय च।।४
ॐ नमो भगवते रास-मण्डलेशाय स्वाहा।
स्वयं वक्षः-स्थलं पातु, मन्त्रोऽयं षोडशाक्षरः।।५
ऐं कृष्णाय स्वाहेति च, कर्ण-युग्मं सदाऽवतु।
ॐ विष्णवे स्वाहेति च, कंकालं सर्वतोऽवतु ।।६
ॐ हरये नमः इति, पृष्ठं पादं सदऽवतु।
ॐ गोवर्द्धन-धारिणे, स्वाहा सर्व-शरीरकम् ।।७
प्राच्यां मां पातु श्रीकृष्णः, आग्नेय्यां पातु माधवः।
दक्षिणे पातु गोपीशो, नैऋत्यां नन्द-नन्दनः।।८
वारुण्यां पातु गोविन्दो, वायव्यां राधिकेश्वरः।
उत्तरे पातु रासेशः, ऐशान्यामच्युतः स्वयम् ।
सन्ततं सर्वतः पातु, परो नारायणः स्वयं ।।९
।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं ब्रह्मन् ! कवचं परमाद्भुतं।
मम जीवन-तुल्यं च, युष्मभ्यं दत्तमेव च ।।
||इति।।
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।। श्री गुरुचरणेभ्यो नमः।।
मच्छिन्द्र गोरक्ष गहिनी जालंदर कानिफा।
भर्तरी रेवण वटसिद्ध चरपटी नाथा ।।
वंदन नवनाथ को,सिद्ध करो मेरे लेखो को।
गुरु दो आशिष,हरे भक्तों के संकट को।।
"राहुलनाथ "
{आपका मित्र,सालाहकार एवम् ज्योतिष}
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🚩🚩🚩जयश्री महाँकाल 🚩🚩🚩
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