||सहज योगा||
सहजयोग के लिए कुछ भी त्याग नहीं करना है।न घर छोडना है न परिवार,न कार्य,न कर्म,अन्यथा सब असहज हो जायेगे।जहाँ है जैसे है वही रुक जाना है स्थिर हो जाना है।कुछ पल के लिए मात्र अपना निरिक्षण करना है।मैं कौन हूँ। और अभी क्या कर रहा हूँ?
सहज सबद का अर्थ होता है आसान,सीधा,सरल।जिस कार्य में थोड़ा भी परिश्रम ना करना पढ़े।जो गुरु के संकेत मात्र से ध्यान को उपलब्ध हो जाए।वही सहज है।अपने आप को पूर्ण रूप से चुप रखना है भीतर से भी और बाहर से भी।गुरु पे पूर्ण विशवास एवं निष्ठा से सहज ही समा जाना है।अपने गुरुके आशीर्वाद एवं वचन के सहारे आगे बढ़ते जाना है।प्रकृति को जहाँ तक आपको लाना था उसने अपना कार्य कर दिया है अब शेष कार्य स्वयं को ही करना होगा।गुरुके संकेत को समझ कर साधना की बागडोर अपने हाथ में ले लेना है।और अब गुरु से कहना है की धन्यवाद।साधक को अनंत ऊंचाई तक मात्र सुरत-निरत के सहारे ही अब आगे बढ़ना है।
स यानी साथ,ह यानी हठ और ज यानी जाप।इस तरह साधक गुरु संकेत द्वारा बिलकुल दृढ़ता पूर्वक सहज सुलभ आसन पर बैठकर अजपा-जाप में लीन हो जाना है।इस तरह साधक सहज ही ध्यान को उपलब्ध हो जाएगा।हम सांसारिक वृत्तियो के कारण असहज हो जाते है।जैसे काम,क्रोध,लोभ इत्यादि।किन्तु आत्मा का स्वरूप शांत है।और आत्मा के साथ ये द्वन्द हमारा चलता ही रहता है।
जब साधक कमजोर हो जाता है तब ये मनोवृत्तियां साधक को अपने पाष में बाँध लेती है।ये वो मनोवृत्तियां होती है जो कल भी नहीं थी और कल भी नहीं रहेगी,मात्र एक आगंतुक की तरह है जो आती है और चली जाती है और फिर हम सामान्य हो जाते है।जब साधक स्वयं को भूल जाता है तब कुछ समय के लिए ये मेहमान साधक पर कुछ क्षण के लिए अधिकार कर लेता है और साधक स्वयं ही अपना अनर्थ कर बैठता है।
इसी लिए साधक को हमेशा सहज रूप में स्थिर रहना है जब भी साधक सहज व् स्थिर अवस्था में रहेगा तब साधक के ऊपर गुरु की कृपा अनवरत बनी रहती है।
संसार में जिसे हम अपना मानते है,वह तो कभी अपना होता ही नहीं है।रास्ते में मुसाफिर की तरह ही रास्ते में कोई मिल जाता है और उसे हम अपना बना लेते है या अपना समझने लगते है।अब जब भी वह बिछुड़ता है तो हमें दुःख होता है।जबकि ये सहज है की मिलने के बाद बिछुड़ना होगा ही।इसी प्रकार हमारा मिलन सेगे-संबंधियो के साथ होता रहता है।एवम् बिछुड़ने के बाद वही मोह वही दुःख सताता रहता है।क्या वे पहले या बाद में रहे होंगे।या शाश्वत हमारे है?सहज योग का साधक सहज रूप से रास्ते के साथी या सब में अपनी सत्ता देखने लगता है।
यह शरिर भोग देह एवम् कर्म का मिश्र देह है।इस सहज योग में साधक श्वास-प्रश्वास का व्यापार करता है।इसे अजपा कहते है।
सहज में "स"-कार और "ह"कार दो बीज हैबिन्दु युक्त हकार(हं) पुरुष का,विसर्ग युक्त"स"के साथ होकर योग द्वारा हंस हो जाता है।इस तरह यह हंस रूप प्राण का व्यापार हुआ।कृष्ण भी गीता जी में जप की बाते करते है।निरंतर गुरु द्वारा दिए गए मंत्र का जाप साधक करता है।जिससे उसके भीतर की सारी वृत्तियाँ जल जाती है।सारे विचार स्वयं जल जाते है।अंत में जाप विचार भी जल जाता है।शेष जो रह जाता है वह अजपा है।अजपा के आते ही साधक सहज हो जाता है।
काँटे की आवश्यकता तभी पढ़ती है जब पैर में काँटा गढ़ जाए।तब दूसरे कांटे से गढ़े काटे को निकाल कर दोनों काँटों को फेक दिया जाता है।
जब का उपयोग भी काँटे की तरह ही किया जा सकता है।यदि साधक जाप को काँटा नहीं समझता और प्रेम में पड़ गया तो दूसरे विचार सहज आये थे ,वह हट जायेगे।
जप वह अग्नि है जो पहले दूसरे को जलाता है फिर पुनः स्वयं को जलाया जाता है।जप जब खुद जला लेता है तब साधक सहज हो जाता है।सहज योग के साधक जप करते समय साक्षी बने रहते है।ऐसा अनुभव नहीं करते की मैं जप कर रहा हूँ।अनुभव करते है की जप मन से हो रहा है,मई देख रहा हूँ।वे एक दिन जप से बाहर निकल आते है।उनका यह जप योग यज्ञ पूर्ण हो जाता है।वे सहजावस्था को प्राप्त हो जाते है।जप रूपी अग्नि में सब कुछ जल जाता है साधक को भी जलने के लिए तैयार रहना होगा।अंत में जो रह जाता है वही नित्य है।वाही स्वरूप है।जप,अजपा,अनाहद से साधक एक दिन ऊपर उठ जाता है।वह आनंद में विचरण करता है।
यही है सहजावस्था।
सहज का अर्थ है-पानी हवा की तरह हो जाए।बिच में बुद्धि से बाधा न डाले।जो भी हो रहा है,होने दे।जब भी हम ये सोचते है यह करेगे,यह न करेगे,बस हम असहज हो जाते है।सच पूछा जाए तो हम जन्मों जन्म से असहज संस्कारो से आबद्ध है इसी से सहज होने में अत्यंत कठिनाई मालुम होती है अन्यथा सब आसान और सहज ही है।
🚩🚩🚩जयश्री महाँकाल 🚩🚩🚩
Kawley rahulnaath osgy
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(Dharmnirpeksh)
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