शनिवार, 15 जुलाई 2017

साधक संजीवनी

साधना संजीविनी
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वे साधक को समाज के कल्याणार्थ साधना सिद्धि के मार्ग पे प्रशस्त है उन्हें चाहिए कि अपने इष्ट के समक्ष दोनों चतुर्दशीयो के दिन ,उन शक्तियों के स्वामियों का आह्वान कर उन्हें पान,फूल एवं मिष्ठान से पूजन करना चाहिए।इससे ये शक्तियाँ तृप्त रहती है और साधक के आह्वाहन पर समाज के कल्याणार्थ सेवा कर मुक्त होने का प्रयास करती है।जो साधक लोगो के भलाई के लिए कार्य करते है उनकी शक्तियाँ सदैव बनी रहती है।
जिस प्रकार मानव में अच्छे ,बुरे एवं मिश्रित स्वभाव के लोग होते है ठीक उसी प्रकार शक्तियों के भी यही तीन रुप होते है जिसे सात्विक(+),तामसिक(-),राजसिक(+-) कहा जाता है।इनमे अच्छी शक्तियां मात्र अच्छा ही कर्म करती है बुरे से युद्ध कर उसका भोग करती है,बुरी शक्तियाँ सिर्फ बुरा करती है और अच्छी शक्तियों से दूरी बनाए रखती है उनके प्रभाव क्षेत्र में हस्तक्षेप नही करती।तीसरी शक्ति साधक की इच्छा के अनुसार उद्देश्य बदलते रहती है।साधक को किस शक्ति की साधना करना है ये साधक पे या गुरु आदेश पे निर्भर करता है।
यहां आप जिस प्रवृति की शक्ति की साधना करते है उनके अनुसार ही उसकी पूजा देने से ही लाभ होता है अन्यथा हानि ही होती है जैसे सात्विक शक्तियाँ पान,फूल मिस्ठान से प्रसन्न हो जाती है वही तामसिक शक्तियाँ मात्र इन भोगो से प्रसन्न नही होती है तामसिक शक्तियों को इन वस्तुओं के साथ साथ तामसिक भोग जैसे अंडा,माँस-मछली एवं शराब का भोग भी प्रदान करना होता है।जो कि सामान्य साधक के क्षेत्र के बाहर का विषय होता है यहां स्मरण रखने वाली बात यह है कि जहां गलती होने से सात्विक शक्तियाँ क्षमा कर देती है वही तामसिक शक्तियाँ साधक को क्षमा नही करती।राजसिक शक्तियों का भोग ,साधक अपनी इच्छानुसार प्रदान कर सकता है।धार्मिक ग्रंथों में इसीलिए कहा गया है कि साधना अपनी प्रवृति एवं संस्कार के अनुरूप करनी चाहिए ,क्योकि शक्तियों को अर्पित किया गया भोग-प्रसाद साधक को स्वंय ही ग्रहण करना होता है इसी भोग-प्रसाद को ग्रहण करने से साधक में शक्तियों का विकास होता है।अब यदि को ब्राह्मण तामसिक साधना करता है और अंडा,मांस-मछली और शराब को भोग रूप में चढ़ाता है और अंत मे उस भोग को स्वयं ग्रहण नही करता तो उसको तामसिक शक्तियाँ प्राप्त नही होगी।वही शराब एवं मांस-मछली की इच्छा रखने वाली शक्तियाँ खीर मिठाई से प्रसन्न नही होती।इन शक्तियों के निमित्त ही साधक की धीरे-धीरे,वेश-भूषा,आचरण,वाणीका निर्माण होने लगता है।जहां तामसिक साधक के चेहरे मे क्रूरता,वाणी दोष,बात-बात मे गालियाँ निकलना सामान्य सी बात है वही सात्विक साधक ठीक इसके विपरीत ही होता है।
तामसिक साधक की शक्तियां ,एक दिन भोग प्रसाद नही मिलने पर साधक को ही खा जाती है एवं अपने लोक में ले जाती है।
क्रमशः
व्यक्तिगत अनुभूति एवं।विचार©₂₀₁₇
।। राहुलनाथ।।™
भिलाई,छत्तीसगढ़,भारत
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