मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

छत्तीस यक्षिणीयाँ ।।

छत्तीस यक्षिणीयाँ ।।
सर्वेषां यक्षिणीनां तु ध्यान कुर्यात्समाहितः।
भगिनी मातृ, पुत्री स्त्री रूप तुल्य यथोप्सितम्।। 1।। 
भोज्य निरामिषे चान्नं वज्र्य ताम्बूल भक्षणम्। उपविश्याजिनादौ च प्रातः स्नानत्वा न कंस्पृशत्।। 2।। 

1.विचित्रा    2.विभ्रमा   3.हंसी   4 भीषणी 5.जनरंजिका   6.विशाला 7.मदना   8.रुद्धा   9.कालकंठी   10. महामाया 11. माहेन्द्री   12.शंखिनी 13.चान्द्री 14.मंगला 15. वटवासिनी 16. मेखला   17.सकला   18.लक्ष्मी (कमला)   19. मालिनी 20. विश्वनायिका   21 सुलोचना   22. रुशोभा 23. कामदा   24. सविलासिनी 25.कामेश्वरी   26.नंदिनी 27.स्वर्ण रेखा    28. मनोरमा   29. प्रमोदा 30. रागिनी 31. सिद्धा   32. पद्मिनी 33. रतिप्रिया   34. कल्याण दा   35. कलादक्षा   36. सुर सुंदरी

||प्रमुख यक्षिणियां है||

1. सुर सुन्दरी यक्षिणी २. मनोहारिणी यक्षिणी 3. कनकावती यक्षिणी 4. कामेश्वरी यक्षिणी
5. रतिप्रिया यक्षिणी 6. पद्मिनी यक्षिणी 6. नटी यक्षिणी 8. अनुरागिणी यक्षिणी

किसी साधना के पूर्व यदि गुरु मंत्र का कम से कम ५१,००० जप कर लिया जाये और फिर मूल साधना की जाये तो सफलता मिलती ही है |   

यक्षिणी साधना की शुरुआत भगवान शिव जी की साधना से की जाती हैं.
शिवजी का मन्त्र –

ऊँ रुद्राय नम: स्वाहा
ऊँ त्रयम्बकाय नम: स्वाहा
ऊँ यक्षराजाय स्वाहा
ऊँ त्रयलोचनाय स्वाहा

इस यक्षिणी कवच को यक्षिणी पुजा से पहले 1,5 या 7 बार जप किया जाना चाहिए। इस कवच के जप से किसी भी प्रकार की यक्षिणी साधना में विपरीत परिणाम प्राप्त नहीं होते और साधना में जल्द ही सिद्धि प्राप्त होती हैं।।।

||श्री उन्मत्त-भैरव उवाच ।।

श्रृणु कल्याणि ! मद्-वाक्यं, कवचं देव-दुर्लभं। 
यक्षिणी-नायिकानां तु, संक्षेपात् सिद्धि-दायकं ।।

ज्ञान-मात्रेण देवशि ! सिद्धिमाप्नोति निश्चितं। 
यक्षिणि स्वयमायाति, कवच-ज्ञान-मात्रतः ।।

सर्वत्र दुर्लभं देवि ! डामरेषु प्रकाशितं। 
पठनात् धारणान्मर्त्यो, यक्षिणी-वशमानयेत् ।।

विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीयक्षिणी-कवचस्य श्री गर्ग ऋषिः,गायत्री छन्दः, श्री अमुकी यक्षिणी देवता, साक्षात् सिद्धि-समृद्धयर्थे पाठे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यासः-
श्रीगर्ग ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, श्री रतिप्रिया यक्षिणी देवतायै नमः हृदि, साक्षात् सिद्धि-समृद्धयर्थे पाठे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

।। मूल पाठ ।।

शिरो मे यक्षिणी पातु, ललाटं यक्ष-कन्यका। 
 मुखं श्री धनदा पातु, कर्णौ मे कुल-नायिका ।।

चक्षुषी वरदा पातु, नासिकां भक्त-वत्सला। 
 केशाग्रं पिंगला पातु, धनदा श्रीमहेश्वरी ।।

स्कन्धौ कुलालपा पातु, गलं मे कमलानना। 
किरातिनी सदा पातु, भुज-युग्मं जटेश्वरी ।।

विकृतास्या सदा पातु, महा-वज्र-प्रिया मम। 
अस्त्र-हस्ता पातु नित्यं, पृष्ठमुदर-देशकम् ।।

भेरुण्डा माकरी देवी, हृदयं पातु सर्वदा। 
अलंकारान्विता पातु, नितम्ब-स्थलं दया ।।

धार्मिका गुह्यदेशं मे, पाद-युग्मं सुरांगना। 
शून्यागारे सदा पातु, मन्त्र-माता-स्वरुपिणी ।।

निष्कलंका सदा पातु, चाम्बुवत्यखिलं तनुं। 
प्रान्तरे धनदा पातु, निज-बीज-प्रकाशिनी ।।

लक्ष्मी-बीजात्मिका पातु, खड्ग-हस्ता श्मशानके। 
शून्यागारे नदी-तीरे, महा-यक्षेश-कन्यका।।

पातु मां वरदाख्या मे, सर्वांगं पातु मोहिनी। 
महा-संकट-मध्ये तु, संग्रामे रिपु-सञ्चये ।।

क्रोध-रुपा सदा पातु, महा-देव निषेविका। 
सर्वत्र सर्वदा पातु, भवानी कुल-दायिका ।।

इत्येतत् कवचं देवि ! महा-यक्षिणी-प्रीतिवं। 
अस्यापि स्मरणादेव, राजत्वं लभतेऽचिरात्।।

पञ्च-वर्ष-सहस्राणि, स्थिरो भवति भू-तले। 
वेद-ज्ञानी सर्व-शास्त्र-वेत्ता भवति निश्चितम्।
अरण्ये सिद्धिमाप्नोति, महा-कवच-पाठतः। 
यक्षिणी कुल-विद्या च, समायाति सु-सिद्धदा।।

अणिमा-लघिमा-प्राप्तिः सुख-सिद्धि-फलं लभेत्। 
पठित्वा धारयित्वा च, निर्जनेऽरण्यमन्तरे।।

स्थित्वा जपेल्लक्ष-मन्त्र मिष्ट-सिद्धिं लभेन्निशि। 
भार्या भवति सा देवी, महा-कवच-पाठतः।।

ग्रहणादेव सिद्धिः स्यान्, नात्र कार्या विचारणा ।।

।। हरि ॐ तत्सत ।।

||एक यक्षिणी साधना।।
शुक्र के प्रभावकाल अर्थात 24 वर्ष तक की आयु के साधक की ऊर्जा प्रबल व उत्तम होने के कारण विधिवत दीक्षित होकर पुर्णतः गुरु के निर्देशन में रहकर सभी आवश्यक नियमों का पालन करते हुए मात्र 7 से 9 दिन में किसी एक यक्षिणी की साधना पूर्ण कर यक्षिणी सिद्धि प्राप्त कर सकता है , तथा इससे अधिक आयु के साधक को ऊर्जा के बल की न्यूनता के कारण साधना में तीन गुणा तक का समय अवश्य लग सकता है !

।।अष्ट यक्षिणी साधना।।
शुक्र के प्रभावकाल अर्थात 24 वर्ष तक की आयु के साधक की ऊर्जा प्रबल व उत्तम होने के कारण विधिवत दीक्षित होकर पुर्णतः गुरु के निर्देशन में रहकर सभी आवश्यक नियमों का पालन करते हुए मात्र 30 दिन में आठों यक्षिणी की साधना पूर्ण कर यक्षिणी सिद्धि प्राप्त कर सकता है , तथा इससे अधिक आयु के साधक को ऊर्जा के बल की न्यूनता के कारण साधना में तीन गुणा तक का समय अवश्य लग सकता है !
भारतीय आगम, निगम तन्त्र शास्त्रों में यक्षिणी साधना प्रारम्भ करने हेतु आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथी (गुरुपूर्णिमा) तथा श्रावण व माघ मास के शुक्रवार को प्रशस्त कहा गया है, इसपर भी शुक्रवार से युक्त आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथी को यक्षिणी साधना प्रारम्भ करने हेतु सर्वोत्तम कहा गया है !
भौतिक व आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर पड़ चुके व्यक्तियों को कम समय में ही अपेक्षित परिणाम देने वाली यह यक्षिणी साधना अवश्य ही संपन्न कर लेनी चाहिए !
प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।

||सुर सुन्दरी यक्षिणी ||
यह सुडौल देहयष्टि, आकर्षक चेहरा, दिव्य आभा लिये हुए, नाजुकता से भरी हुई है। देव योनी के समान सुन्दर होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है। सुर सुन्दरी कि विशेषता है, कि साधक उसे जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होता ही है - चाहे वह माँ का स्वरूप हो, चाहे वह बहन का या पत्नी का, या प्रेमिका का। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है।

||मनोहारिणी यक्षिणी||
अण्डाकार चेहरा, हरिण के समान नेत्र, गौर वर्णीय, चंदन कि सुगंध से आपूरित मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहन बना देती है, कि वह कोई भी, चाहे वह पुरूष हो या स्त्री, उसके सम्मोहन पाश में बंध ही जाता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट कराती है।

||कनकावती यक्षिणी||
रक्त वस्त्र धारण कि हुई, मुग्ध करने वाली और अनिन्द्य सौन्दर्य कि स्वामिनी, षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा कनकावती यक्षिणी है। कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने कि क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है।

||कामेश्वरी यक्षिणी||
सदैव चंचल रहने वाली, उद्दाम यौवन युक्त, जिससे मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है। साधक का हर क्षण मनोरंजन करती है कामेश्वरी यक्षिणी। यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख कि कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में साधक कि कामना करती है। साधक को जब भी द्रव्य कि आवश्यकता होती है, वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है।

||रति प्रिया यक्षिणी||
स्वर्ण के समान देह से युक्त, सभी मंगल आभूषणों से सुसज्जित, प्रफुल्लता प्रदान करने वाली है रति प्रिया यक्षिणी। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक और साधिका यदि संयमित होकर इस साधना को संपन्न कर लें तो निश्चय ही उन्हें कामदेव और रति के समान सौन्दर्य कि उपलब्धि होती है।

||पदमिनी यक्षिणी||
कमल के समान कोमल, श्यामवर्णा, उन्नत स्तन, अधरों पर सदैव मुस्कान खेलती रहती है, तथा इसके नेत्र अत्यधिक सुन्दर है। पद्मिनी यक्षिणी साधना साधक को अपना सान्निध्य नित्य प्रदान करती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यह अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान कराती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति कि और अग्रसर करती है।

||नटी यक्षिणी||
नटी यक्षिणी को 'विश्वामित्र' ने भी सिद्ध किया था। यह अपने साधक कि पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार कि विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है।

||अनुरागिणी यक्षिणी||
अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है। साधक पर प्रसन्न होने पर उसे नित्य धन, मान, यश आदि प्रदान करती है तथा साधक की इच्छा होने पर उसके साथ उल्लास करती है।

||मूलअष्ट यक्षिणी मंत्र||
॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः ॥

सुर सुन्दरी मंत्र
॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥

मनोहारिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥

कनकावती मंत्र
॥ ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥

कामेश्वरी मंत्र
॥ ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥

रति प्रिया मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥

पद्मिनी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥

नटी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥

अनुरागिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥ 
।।यक्षिणी साधना ।।

 
सनातन धर्म में प्राचीन काल से ही उपदेवीयों (जिन्हें यक्षिणी के नाम से जाना जाता है,) की साधना का प्रचलन रहा है , क्योंकि इनकी साधना वैदिक देवी देवताओं की साधना से कहीं अधिक सहज व सरल होती हैं, यही कारण है कि अत्यंत कम समय में ही भौतिक व आर्थिक रूप से अपेक्षित परिणाम देकर भौतिक सुख संसाधनों की सहजता प्रदान करने वाली उपदेवी यक्षिणियों की साधना सामान्य गृहस्थ जन भौतिक व आर्थिक समृद्धि हेतु तथा सन्यासी जन सहयोगीमात्र के रूप में करते आये हैं !
सनातन धर्म की एक शाखा “जैन सम्प्रदाय” सनातन धर्म की अन्य सभी शाखाओं की अपेक्षा सर्वाधिक धन, संपत्ति व व्यवसाय से परिपूर्ण होते हैं, क्योंकि वह मणिभद्र, पद्मावती आदि किसी न किसी यक्ष अथवा यक्षिणी की विधिवत साधना या पूजा अवश्य संपन्न करते हैं !
यक्षिणियां अत्यंत कम समय में ही भौतिक व आर्थिक रूप से अपेक्षित परिणाम देकर भौतिक सुख संसाधनों की सहजता प्रदान करती हैं , साथ ही साधक द्वारा उनकी शक्तियों का सही प्रयोग किये जाने पर आध्यात्म के मार्ग में भी सहायक होती हैं !
भगवान रूद्र व देवकोष के स्वामी धनाधिपति यक्षराज कुबेर की घनिष्ठ मित्रता के एक रहस्य के परिणाम स्वरूप श्रावण माह में एक विशेष विधि से शिवलिंग पूजन करने या तंत्रोक्त पद्धति से लिंगार्चन अथवा चक्रार्चन करने मात्र से अनेक यक्षिणियां स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं ! किन्तु यक्षिणी साधना आध्यात्मिक व आत्मोत्थान मार्ग का आधार कभी नहीं होती है !
यक्षिणियों की साधना अनेक रूपों में की जाती है, जैसे माँ, बहन, पत्नी अथवा प्रेमिका के रूप में इनकी साधना की जाती है, ओर साधक जिस रूप में इनको साधता है ये उसी प्रकार का व्यवहार व परिणाम भी साधक को प्रदान करती हैं, माँ के रूप में साधने पर वह ममतामय होकर साधक का सभी प्रकार से पुत्रवत पालन करती हैं तो बहन के रूप में साधने पर वह भावनामय होकर सहयोगात्मक होती हैं, ओर पत्नी या प्रेमिका के रूप में साधने पर उस साधक को उनसे अनेक सुख तो प्राप्त हो सकते हैं किन्तु उसे अपनी पत्नी व संतान से दूर हो जाना पड़ता है !!!
बहुत से साधक जानकारी के अभाव में बाजार में उपलब्ध संक्रमित ग्रंथों को पढ़कर, अथवा अनुभवहीन व्यक्ति या साधक की लुभावनी बातों में आकर पत्नी या प्रेमिका के रूप में यक्षिणी साधना कर बैठते हैं, ओर इसके दुष्परिणाम स्वरूप ऐसे साधक अपने गृहस्थ जीवन व पत्नी से हाथ धो बैठते हैं ! क्योंकि माँ अथवा बहन के रूप में ये किसी बाध्यता के बिना ही साधक को सभी भौतिक सुख संसाधनों की सहजता प्रदान करती हैं, ओर पत्नी या प्रेमिका के रूप में साधने पर उस साधक को पत्नी या प्रेमिका के रूप में उनसे अनेक सुख तो प्राप्त हो सकते हैं किन्तु उसे अपनी पत्नी को त्यागने की बाध्यता निश्चित होती है ! अतः एक समझदार व्यक्ति को यक्षिणी साधना सदैव माँ के रूप में ही करनी चाहिए, पत्नी या प्रेमिका के रूप में कभी भी नहीं करनी चाहिए ! यक्षिणी साधना के दिनों में ब्रह्मचर्य से रहना अनिवार्य है, तथा मांस, मदिरा ओर पान नहीं खाया जा सकता है !
माना गया है कि सभी यक्षिणियां देवी दुर्गा की उपासिका या सहचरी हैं। इनकी एक बहुत बड़ी विशेषता है कि अपने सिद्ध साधक को वह भी उपलब्ध करा देती हैं जो उसके भाग्य में नहीं होता। हां इसका एक अनिवार्य नियम है कि यक्षिणी साधना जब भी और जितने दिन की भी करें, उस दौरान प्रतिदिन कुंवारी कन्याओं को भोजन कराएं और उन्हें वस्त्र, रुपए का दान दक्षिणा दें। इनकी साधना में यह अनिवार्य विधान है। समस्त यक्षिणी वर्ग की साधना लगभग एक जैसी ही है, पर इनके मंत्र अलग-अलग हैं।

इनकी साधना के दौरान साधक को पूर्ण निर्भय होना चाहिए और निर्दिष्ट संख्या में जप करने के बाद दशांश हवन-तर्पण करना चाहिए। यक्षिणी प्रसन्न होकर सबकुछ देती है, पर उससे प्राप्त धन और शक्ति का कोई दुरुपयोग करता है तो उसकी सिद्धि स्वतः समाप्त हो जाती है।
यक्षिणियों को देवी वर्ग प्राप्त है और उनमें भूत-प्रेतों और पिशाचों जैसी वृत्तियां नहीं हैं। इनमें सहनशीलता बहुत है, पर इन्हें नाराज कर दिया जाए तो ये संपूर्ण विनाश कर देती हैं। इन्हें कोई भी तांत्रिक अथवा साधक भूत-प्रेतों और जिन्नों की तरह वशीभूत नहीं कर सकता।
यक्षिणी साधना को करने से साधक की मनोकामनाएं जल्द ही पूर्ण हो जाती हैं तथा इस साधना को करने से साधक को दुसरे के मन की बातों को जानने की शक्ति भी प्राप्त होती हैं, साधक की बुद्धि तेज होती हैं. यक्षिणी साधना को करने से कठिन से कठिन कार्यों की सिद्धि जल्द ही हो जाती हैं.

।।यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन ।।

ज्योतिषों के अनुसार यदि आषाढ़ माह में शुक्रवार के दिन पूर्णिमा हैं तो यक्षिणी साधना को करने का सबसे शुभ दिन अगले सप्ताह में आने वाला गुरुवार हैं.
इसके अलावा यक्षिणी साधना को करने की शुभ तिथि श्रावण मास की कृष्ण पक्ष प्रतिपदा हैं. यह यक्षिणी साधना को करने का शुभ दिन इसलिए माना जाता हैं. क्योंकि इस दिन चंद्रमा में शक्ति अधिक होती हैं. जिससे साधक को उत्तम फल की प्राप्ति होती हैं.

।।यक्षिणी साधना की विधि।।

1.यक्षिणी साधना को करने के लिए सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें और पूजा की सारी सामग्री को इकट्ठा कर लें.
2.यक्षिणी साधना का आरम्भ करने के लिए सबसे पहले शिव जी की पूजा सामान्य विधि से करें. 
3.इसके बाद एक केले के पेड़ या बेलगिरी के पेड़ के नीचे यक्षिणी की साधना करें.
4.यक्षिणी साधना को करने से आपका मन स्थिर और एकाग्र हो जायेगा. इसके बाद निम्नलिखित मन्त्रों का जाप पांच हजार बार करें.
5.जाप करने के बाद घर पहुंच कर कुंवारी कन्याओं को खीर का भोजन करायें.
।।यक्षिणी साधना की दूसरी विधि ।।

यक्षिणी साधना को करने का एक और तरीका हैं. इस विधि के अनुसार यक्षिणी साधना करने के लिए वट के या पीपल के पेड़ नीचे शिवजी की तस्वीर या मूर्ति की स्थापना कर लें. अब निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण पांच हजार बार करते हुए पेड़ की जड में जल चढाएं.

।।यक्षिणी साधना के नियम।

1. यक्षिणी साधना को करने लिए ब्रहमचारी रहना बहुत ही जरूरी हैं.
2.इस साधना को प्राम्भ करने के बाद साधक को अपने सभी कार्य भूमि पर करने चाहिए.
3.यक्षिणी साधना की सिद्धि हेतु साधक को नशीले पदार्थों का एवं मांसाहारी भोजन का सेवन बिल्कुल नहीं करना चाहिए.
4.यक्षिणी साधना को करते समय सफेद या पीले रंग के वस्त्रों को ही केवल धारण करना चाहिए.
5.इस साधना को करने वाले साधक को साबुन, इत्र या किसी प्रकार के सुगन्धित तेल का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए तथा उसे अपने क्रोध पर काबू करना चाहिए. 

।।धनदा यक्षिणी सिद्धि ।।
विधि- सबसे पहले किसी सिद्ध गुरु से यक्षिणी मंत्र प्राप्त करें। स्वयं स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहनें। प्रारंभिक विधान भी किसी योग्य गुरु से ही करवाएं।
पंचोपचार पूजा ( गंध, पुष्प, धूप, नैवेद्य दीप आदि) से पीपल के वृक्ष का पूजन करें और उसी वृक्ष की किसी शाखा पर बैठ कर श्रद्धा और विश्वास के साथ धनदा यक्षिणी का देवी रूप में स्मरण करें और निम्न मंत्र का 21000 की संख्या में जप करें…
ऊं ऐं व्हीं श्रीं धनं कुरु स्वाहा।

यह जप मानसिक होना चाहिए जप मन में ही करें। स्वर निकलना तो दूर आपके होंठ भी नहीं हिलने चाहिए। जप संख्या का दस प्रतिशत हवन और तर्पण जप समाप्त होने के बाद करना आवश्यक है।

।।आम्र यक्षिणी साधना ।।
इसकी साधना आम के वृक्ष पर बैठकर की जाती है। विधि-विधान वही हैं। इसकी जपसंख्या एक लाख है। प्रतिदिन के जप के हिसाब से जपसंख्या को तय कर लें उसके बाद पूरी जपसंख्या का दशांश हवन और उसका दशांश तर्पण करें…

मंत्र-
ऊँ हों हौं हं रें कुरु स्वाहा

।।जया यक्षिणी ।।
इसकी साधना मदार (आक) के वृक्ष की जड़ पर बैठ कर की जाती है साधक पीला वस्त्र धारण करें। सारे ही वस्त्र पीले होने आवश्यक हैं। जप संख्या 11 हजार है । जप समाप्ति के बाद खीर का भोग अर्पण करें। यह यक्षिणी प्रसन्न होकर प्रकट भी हो जाती है।

मंत्र-
मंदार वृक्षवासिनी यक्ष कुलोद्भवा
जय प्रकट्टा वरदय वरदय स्वाहा।

इस मंत्र के जप का बीसवां भाग हवन औऱ हवन का दसवां भाग तर्पण करना चाहिए। सिद्ध होने पर यह सुंदर रूप में वस्त्राभूषणों से अलंकृत रमणी के रूप में प्रकट होती हैं तब उससे इच्छित वर मांग लेना चाहिए।

||वनस्पति यक्षिणी साधना||

तंत्र शास्त्र में यथा शीघ्र प्रसन्न होने वाली कुछ यक्षिणी साधना - यक्षिणी साधना - वनस्पति यक्षिणियां
भगवान शिव ने लंकापती रावण को जो तंत्रज्ञान दिया ,
उसमेंसे ये साधनाएं शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाली है ।
वनस्पति यक्षिणियां कुछ ऐसी यक्षिणियां भी होती हैं ,जिनका वास किसी विशेष वनस्पति ( वृक्ष - पौधे )
पर होता है । उस वनस्पति का प्रयोग करते समय उस
यक्षिणी का मंत्र जपने से विशेष लाभ प्राप्त होता है । वैसे भी वानस्पतिक यक्षिणी की साधना की जा सकती है। अन्य यक्षिणियों की भांति वे भी साधक की कामनाएं पूर्ण करती हैं ।वानस्पतिक यक्षिणियों के मंत्र भी भिन्न हैं । कुछ बंदों के मंत्र भी प्राप्त होते हैं । इन
यक्षिणियों की साधना में काल की प्रधानता है और स्थान का भी महत्त्व है ।जिस ऋतु में जिस वनस्पति का विकास हो , वही ऋतु इनकी साधना में लेनी चाहिए । वसंत ऋतु को सर्वोत्तम माना गया है । दूसरा पक्ष श्रावण मास( वर्षा ऋतु ) का है । स्थान की दृष्टि से एकांत अथवा सिद्धपीठ कामाख्या आदि उत्तम हैं । साधक को उक्त साध्य वनस्पति की छाया में निकट बैठकर उस यक्षिणी के दर्शन की उत्सुकता रखते हुए एक माह तक मंत्र - जप करने से सिद्धि प्राप्त होती हैं ।साधना के पूर्व आषाढ़ की पूर्णिमा को क्षौरादि कर्म
करके शुभ मुहूर्त्त में बिल्वपत्र के नीचे बैठकर शिव की षोडशोपचार पूजा करें और पूरे श्रावण मास में इसी प्रकार पूजा - जप के साथ प्रतिदिन कुबेर की पूजा करके निम्नलिखित कुबेर मंत्र का एक सौ आठ बार जप करें -

'' ॐ यक्षराज नमस्तुभ्यं शंकर प्रिय बांधव ।
एकां मे वशगां नित्यं यक्षिणी कुरु ते नमः ॥

इसके पश्चात् अभीष्ट यक्षिणी के मंत्र का जप करें । ब्रह्मचर्य और हविष्यान्न भक्षण आदि नियमों का पालन आवश्यक है । प्रतिदिन कुमारी - पूजन करें और जप के समय बलि नैवेद्य पास रखें । जब यक्षिणी मांगे , तब वह अर्पित करें। वर मांगने की कहने पर यथोचित वर मांगें । द्रव्य - प्राप्त होने पर उसे शुभ कार्य में भी व्यय करें ।यह विषय अति रहस्यमय है ।सबकी बलि सामग्री , जप - संख्या ,जप - माला आदि भिन्न - भिन्न हैं । अतः साधक किसी योग्य गुरु की देख - रेख में पूरी विधि जानकर सधना करें ,क्योंकि यक्षिणी देवियां अनेक रुप में दर्शन देती हैं उससे भय भी होता है ।
वानस्पतिक यक्षिणियों के वर्ग में प्रमुख नाम और उनके मंत्र इस प्रकार हैं -

||बिल्व यक्षिणी ||
ॐ क्ली ह्रीं ऐं ॐ श्रीं महायक्षिण्यै सर्वेश्वर्यप्रदात्र्यै ॐ
नमः श्रीं क्लीं ऐ आं स्वाहा ।

इस यक्षिणी की साधना से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।

||निर्गुण्डी यक्षिणी||
ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः ।
इस यक्षिणी की साधना से विद्या - लाभ होता है ।

||अर्क यक्षिणी||
ॐ ऐं महायक्षिण्यै सर्वकार्यसाधनं कुरु कुरु स्वाहा ।

सर्वकार्य साधन के निमित्त इस यक्षिणी की साधना करनी चाहिए।

||श्वेतगुंजा यक्षिणी ||
ॐ जगन्मात्रे नमः ।
इस यक्षिणी की साधना से अत्याधिक संतोष की प्राप्ति होती है ।

||तुलसी यक्षिणी ||
ॐ क्लीं क्लीं नमः ।
राजसुख की प्राप्ति के लिए इस यक्षिणी की साधना की जाती है।

||कुश यक्षिणी -
ॐ वाड्मयायै नमः ।
वाकसिद्धि हेतु इस यक्षिणी की साधना करें ।

||पिप्पल यक्षिणी -
ॐ ऐं क्लीं मे धनं कुरु कुरु स्वाहा ।
इस यक्षिणी की साधना से पुत्रादि की प्राप्ति होती है । जिनके कोई पुत्र न हो , उन्हें इस यक्षिणी की साधना करनी चाहिए।

||उदुम्बर यक्षिणी ||
ॐ ह्रीं श्रीं शारदायै नमः ।
विद्या की प्राप्ति के निमित्त इस यक्षिणी की साधना करें
||अपामार्ग यक्षिणी ||
ॐ ह्रीं भारत्यै नमः ।
इस यक्षिणी की साधना करने से परम ज्ञान की प्राप्ति होती है ।

||धात्री यक्षिणी||
ऐं क्लीं नमः ।
इस यक्षिणी के मंत्र - जप और करने से साधना से
जीवन की सभी अशुभताओं का निवारण हो जाता है ।

||सहदेई यक्षिणी ||
ॐ नमो भगवति सहदेई सदबलदायिनी सदेववत् कुरु कुरु स्वाहा ।
इस यक्षिणी की साधना से धन -संपत्ति की प्राप्ति होती है । पहले के धन की वृद्धि होती है तथा मान -
सम्मान आदि इस यक्षिणी की कृपा से सहज ही प्राप्त हो जाता है ।....

।।सावधानिया।।

योगिनी, किन्नरी, अप्सरा आदि की तरह ही यक्षिणियां भी मनुष्य की समस्त कामनाओं की पूर्ति करती हैं। साधारणतया 36 यक्षिणियां हैं तथा उनके वर देने के प्रकार अलग-अलग हैं। माता, बहन या पत्नी के रूप में उनका वरण किया जाता है। उनकी साधना के पहले तैयारी की जाती है, जो अधिक कठिन है, बजाय साधना के पहले चान्द्रायण व्रत किया जाता है। इस व्रत में प्रतिपदा को 1 कौर भोजन, दूज को 2 कौर इस प्रकार 1-1 कौर भोजन पूर्णिमा तक करके पूर्णिमा के बाद 1-1 कौर कम करते हुए व्रत किया जाता है। इसमें 1 कौर भोजन के अलावा कुछ नहीं लिया जाता है। इससे कई जन्मों के पाप कट जाते हैं। पश्चात 16 रुद्राभिषेक किए जाते हैं, साथ में महामृत्युंजय 51 हजार तथा कुबेर यंत्र 51 हजार कर भगवान भूतनाथ शिवजी से आज्ञा ली जाती है।  स्वप्न में यदि व्यक्ति के श्रेष्ठ कर्म हों तो भोलेनाथ स्वयं आते हैं या सुस्वप्न या कुस्वप्न जिसे गुरुजी बतलाकर संकेत समझकर प्रार्थना की जाती है। कुस्वप्न होने पर साधना नहीं की जानी चाहिए। यदि की गई तो फलीभूत नहीं होगी या फिर नुकसान होगा। साधना के दौरान ब्रह्मचर्य, हविष्यान्न आदि का ध्यान रखता होता है। साधना के साधारणतया नियम माने जाते हैं तथा विशिष्ट प्रयोगों में यंत्र प्राप्त कर उसे प्राण-प्रतिष्ठित कर आवश्यक वस्तुएं, जो हर किसी देवी की अलग-अलग होती हैं, का प्रयोग किया जाता है। 
उपरोक्त पोस्टो को व्हाट्सऐप के माध्यम,पिछले कुछ दिनों में अलग अलग लेखो द्वारा संकलित किया गया है।यक्षिणी साधना की मेरी अनुभूतियों द्वारा समझने के लिए आप मुझसे प्रसनल बात कर सकते है।इस साधना में जो भी मंत्र कवच दिए गए है वे सभ भगवान शिव द्वारा प्रदान किये गए है।इसमें मेरी या किसी की बपौती नहीं है।

चेतावनी:-हमारे लेखो को पढने के बाद पाठक उसे माने ,इसके लिए वे बाध्य नहीं है।हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे ।क्योकि हमारा उद्देश्य केवल विषय से परिचित कराना है। किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में अपने योग्य विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श ले। साधको को चेतावनी दी जाती है की वे बिना गुरु के निर्देशन के साधनाए ना करे। अन्यथा मानसिक हानि भी संभव है। यह केवल सुचना ही नहीं चेतावनी भी है।
।।राहुलनाथ।।
भिलाई,छत्तीसगढ़,भारत
+919827374074
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