मंगलवार, 29 नवंबर 2016

तंत्र एक वैदिक विद्या

तंत्र एक वैदिक विद्या
तंत्र के संबंध में जन सामान्य में सदियों से बहुत सी गलत धारणा मन में बैठी हुई है या बैठा दी गई है कि तंत्र एक हानिकारक विद्या है जबकि तंत्र शास्त्र भी वेदों का एक अंग है एक बार भगवान इंद्र की उकंठा को शांत करने के लिए गुरु बृहस्पति ने इस विद्या का ज्ञान इन को करवाया और बताएं कि तंत्र मंत्र हो या यंत्र तीनों की उत्पत्ति भी वेदों से ही हुई है जितने भी मंत्र हैं उनको तीन भागों में विभाजित किया गया है जैसे जो मंत्र वेदों में वर्णित किये गए हैं जिन्हें ऋषीयो द्वारा बताया गया हैं उन मित्रों को वैदिक मंत्र कहा जाता है तंत्र आचार्य तांत्रिक द्वारा रचित मंत्र तांत्रिक मंत्र एवं औघड़ अवधूत अघोरी द्वारा रचित मंत्र शाबर मंत्र कहलाते हैं शाबरमंत्र के जनक मत्स्येन्द्रनाथ जी को माना गया है जिन्होंने शाबर मंत्र की व्याख्या की एवं उनका निर्माण किया ।इंद्र की शंका का निवारण करते हुए देव गुरु ने कहा कि है हे इंद्र तंत्र शक्ति के समक्ष अस्त्र शस्त्र की शक्ति भी तुच्छ होती है तंत्र शक्ति द्वारा सैकड़ों करोड़ों मिल दूर से भी किसी भी असाध्य कार्य को साध्य बनाया जा सकता है।
प्रारंभ से ही तांत्रिक साधना का स्वरुप अत्यंत रहस्यमई एवं गुप्त रहा है जिसे गुप्त लिपि में लिखा जाता रहा है नेपाल के राज्य पुस्तकालय में
निःश्वासतंत्र संहिता नामक ग्रन्थ सुरक्षित रखा गया है जो कि प्राचीन गुप्त लिपि में लिखा हुआ है 8 वी शताब्दी में यह ग्रंथ प्रचलित रहा था इसके 5 विभाग है और प्रत्येक का नाम सूत्र है लौकिक सुत्र ,धर्म सूत्र,मूल सूत्र,उत्तर सूत्र,नयसूत्र,एवं गुह्य सूत्र ।
वस्तुतः तंत्र विद्या की जनक सदाशिव ही है सौंदर्य लहरी नामक ग्रंथ में तंत्रो की संख्या 64 बताई गई है उसमें उपतंत्र,यामल,डामर,शाबर आदि का उल्लेख किया गया है ।
मृगेंद्र तंत्र में तांत्रिक विकास तथा विभाग का परिचय मिलता है इससे निश्फल शिव के अवबोध रूप ज्ञान पहले नाद के आकार में प्रसूत होता है कामिक आगम बताते हैं कि सदाशिव के ही प्रत्येक मुख से पांच स्रोतों का निर्गम हुआ है इसमें पहला अलौकिक दूसरा वैदिक तीसरा अध्यात्मिक चौथा अतिमार्ग और पांचवा मंत्रात्मक है सदाशिव पंचमुखी है इसलिए स्रोतों की  संख्या भी समस्ति रुप से 25 है लौकिक तथा वैदिक तंत्र भी 5 प्रकार का है
इन सभी पांच स्रोतों की अपनी विशेषता एवं विशिष्टता भी है यथा पूर्वमुख से उत्पन्न तंत्र सभी प्रकार के विघ्नों का हरण करने वाला गरुड़ तंत्र है उत्तर मुख से उद्भुत तंत्र सबके वशीकरण के लिए है पश्चिम मुख से उत्पन्न तंत्र भूत ग्रह निवारक भूततंत्र है तथा दक्षिण मुख से उत्पन्न तंत्र  भैरव तंत्र शतक्षय करता है स्वायंभुव में कहा गया है कि शिव मुख से उत्पन्न ज्ञान स्वरुप्रपरता एक  होने पर भी अर्थ संबंध भेद से  विभिन्न प्रकार है हम इस दृष्टि से शिव ज्ञान 10 प्रकार के तथा रूद्र ज्ञान 18 प्रकार  के होते है उपासना की दृष्टि से तांत्रिक साधना का विभाजन भी होता है उपास्य भेद से भी उस का विभाजन किया जाता है उपास्य में देवी के प्रकार ,भेद के अनुसार विभाजन प्रचलित है उसमे महाविद्यानुसारी विभाग ही अति प्रसिद्ध है इस दृष्टि से काली,तारा तथा श्रीविद्या की साधना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।कालिकिताब
।।राहुलनाथ।।
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