गुरुवार, 17 नवंबर 2016

गोरख वाणी.. एक विश्लेषण

बड़े बड़े कूल्हे मोटे मोटे पेट,नहीं रे पूता गुरु सौ भेट।
षड षड काया निरमल नेत,भई रे पूता गुरु सौ भेट।।
।।गोरख वाणी।।११०।।

गुरु गोरखनाथजी महाराज अपनी वाणी में कहते है कि जिनके बड़े-बड़े कूल्हे होते है एवं जिनकी मोटे और बड़े बड़े पेट होते है उन्हें योग की जानकारी नहीं होती है और ऐसे योगियों एवं साधको को देखते ही समझ जाना चाहिए की उन्हें अभी तक अच्छा गुरु प्राप्त नहीं हुआ है।यदि साधक या योगी का शरीर खड़-खड़ यानी चर्बी के बोझ से मुक्त है और उसके नेत्र निर्मल एवं कान्तिमय है तो समझना चाहिए की उसकी गुरु से भेंट हो गई है।
अत्यधिक भोजन ग्रहण करने से शरीर में शुक्र,आलस एवं चर्बी का निर्माण अत्यधिम मात्रा में लगातार होता एवं इंद्रिया बलवती हो जाती है जिससे ज्ञान नष्ट हो जाता है।इसीलिए गुरुदेव कहते है कि साधक वो जो कभी भरपेट भोजन ना करे।भोजन खाने के बाद भी पेट में इतनी जगह होनी चाहिए की जितना भोजन लिया गया हो उतना ही।भोजन पुनः ग्रहण किया जा सके।अत्यधिक शुक्र के बढ़ने से काम-वासना का वेग साधक पे शीघ्रता से अपनी पकड़ बना लेता है।और ये काम-वासना के बढ़ जाने से एकाग्रता की कमी हो जाती है जिससे साधक को ईश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में विलंब होता है।अत्यधिक बड़ा हुआ शुक्र यदि ,संयम की कमी के कारण नीचे की ओर गति करता है तो साधक की साधना पाताल में चली जाती है और साधक का पतन हो जाता है वही ऊपर की तरफ गति करता हुआ शुक्र काम को भस्म कर ,साधक का मार्ग प्रशस्त करता है।
अत्यधिक बड़ी हुई स्थूलता साधक को एकासन सिद्ध नहीं होने देती एवं ध्यान की अवस्था में शरीर नीचे की और धस्ता हुआ प्रतीत होता है।जितना सरल एवं चर्बी रहित शरीर होगा उतनी ही पूर्ति एवं एकाग्रता प्राप्त होते जाती है।
इसके विपरीत यदि साधक स्थूल शरीर वाला भी है एवं गुरु कृपा से कुंडलिनी सिद्धि प्राप्त हो जाती है तो कुंडली के जागते ही "माँ कुण्डलिनी" जो बहुत जन्मो से भूखी होने के कारण ,साधक के शरीर की सारी चर्बी को निगल लेती है ऐसी अवस्था में साधक जो भोजन खाता है वह भी माँ कुण्डलिनी की भेंट चढ़ जाता है,और साधक को एक सुगठित एवं गोल काया की प्राप्ति हो जाती है।मेरा आशय यह है कि सिद्ध साधक वही है जो आलस से कोसो दूर हो,जिसे सिद्धासन(साढ़े तीन घंटे)सिद्ध हो।आंतरिक ध्यान एवं अंतर साधना में साधक के नेत्र निर्मल एवं काँतिवान हो जाते है वाणी मधुर हो जाती है इसके विपरीत बाह्य त्राटक,एवं वस्तु त्राटक की अवस्था में साधक के नेत्र बड़े एवं रक्तिम हो जाते है जो एक सिद्ध अवस्था नहीं होती।

थोड़ा बोलै थोड़ा षाइ तिस घटि पवनां रहै समाई।
गगन मंडल से अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुरु लाजै।।
।।गोरखवाणी ३२।।

गुरुदेव कहते है जो थोड़ा बोलता है और थोड़ा ही खाता है उसके शरीर में पवन(वायु) समाया रहता है।अत्यधिक बोलने से,अत्यधिक फूंकने से,अत्यधिक खाने से शरीर में वायु बचता नहीं है या फिर कम मात्रा में रहता है।इस वायु के द्वारा ही गगन मंडल तक पहुचा जा सकता है।
इस पवन का ही चौसठ संधियों में आवागमन होने से ,साधक का काया कल्प हो जाता है।अत्यधिक बोलने से,अधिक सबद का निर्माण होता है ये सबद की धारा ही सृष्टि का निर्माण करती है।अलग अलग सबद बोलने से ,अलग अलग सृष्टि का निर्माण होता है अतः साधक को चाहिए की वो मात्र गुरु सबद का ही चिंतन मनन करे क्योकि गुरु सबद में ही परमात्मा परमतत्व का वास होता है।
गगनमंडल(मस्तिष्क) का स्थान,ब्रह्मरंध में होता है जहां गुरु की गादी उपस्थित होती है।इस स्थान ने ही अनाहद नाद का गुंजन होता रहता है।
गुरुकृपा से अमरतत्व प्राप्त करने का सुलभ साधन हमारे ही भीतर होने के बाद भी यदि साधक या शिष्य के शरीर का आलस या अज्ञान से शरीर का नाश हो जाए तो ये सद्गुरु के लिए लज्ज़ा की ही बात है।

अवधू अहार तोडो निद्रा मोड़ो कबहुँ न होइगा रोगी।
छठै छ मासै काया पलटिबा ज्यूँ को को बिरला बिजोगी।।
।।गोरखवाणी३३।।

गुरुदेव कहते है कि अपने आहार को तोड़ देना चाहिए यानी आहार उतना ही लेना चाहिए जिससे साधना की आवश्यकतानुसार ऊर्जा का निर्माण हो सके और इस पांच भौतिक शरिर की रक्षा हो सके ।अत्यधिक आहार से निर्मित अत्यधिक ऊर्जा आलस एवं काम वासना को जन्म देती है जो साधक के लिए जहर के समान ही होती है।आहार के समान ही साधक को अपनी निंद्रा को मोड़ देना चाहिए यानी प्रथम तो सोना ही नहीं चाहिए एवं अत्यधिक आवश्यकता होने से 3 घंटे ही सोना चाहिए।ऐसा करने से साधक हर छै मॉस में अपनी काया को पलट देता है पलटने से आशय काया को बदलने से है।इस क्रिया से साधक का शरीर चर्बी,एवं आलस से मुक्त हो कर पूर्ण रूप से बदल जाता है।साधक कभी रोगी नहीं होता।इस योग की क्रिया को करना सभी साधको के वश की बात नहीं होती कोई विरला एवं गुरु आदेशो को मानने वाला शिष्य ही इस चमत्कारी करतब को कर दीखता है।

*****जयश्री महाकाल****
******राहुलनाथ*****
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                   ।। मेरी भक्ति गुरु की शक्ति।।
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