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आत्मा का न्याय या अन्याय से कोई मतलब नही होता।
यदि उसने सोच लिया तो वो "प्रतिशोध" ले कर ही रहती है।
किंतु आत्मा कितनी भी शक्तिशाली क्यो न हो।
वो बिना मानव शरीर के "प्रतिशोध" नही ले सकती।
हमारे शरीर के भीतर जो निवास करता है उसे जीवआत्मा कहा जाता है।नाम हमारे शरीर के ही रखे जाते हैं,आत्मा के नही।आत्मा का कोई नाम नही होता सिवाय आत्मा नाम के।जब शरीर छोड़ दिया जाता हैं तो उस जीवात्मा के बहुत से नाम रख दिये जाते है।पशु योनि, पक्षी योनि, मनुष्य योनि में जीवन-यापन करने वाली आत्माएं मरने के बाद अदृश्य भुत-प्रेत,पिशाच,राक्षस, आदि और स्त्री शरीर हो तो चुड़ैल,भूतनी,प्रेतनी,डाकिनी, शाकिनी इत्यादि योनि में चली जाती हैं और इसी नाम से पहचानी जाती है।
योनि क्या होती है?आत्मा के प्रत्येक जन्म द्वारा प्राप्त जीव रूप को योनि कहते हैं।शास्त्रो के कनुसार ऐसी 84 लाख योनियां हैं, जिसमें कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, वृक्ष और मानव आदि सभी शामिल हैं।हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाती है। 84 लाख योनियां निम्नानुसार मानी गई हैं- पेड़-पौधे- 30 लाख, कीड़े-मकौड़े- 27 लाख, पक्षी- 14 लाख, पानी के जीव-जंतु- 9 लाख, देवता, मनुष्य, पशु- 4 लाख, कुल योनियां- 84 लाख।
परन्तु आत्मा की पहचान उसी नाम से होती है जिस नाम से आत्मा के शरीर का रखा गया था।यहां समझने वाली बात यह है कि सत्य सनातन आत्मा का स्वर्गवास नही होता,और ना ही कोई उसका कोई नाम होता है नाम तो शरीर का होता है।बस शरीर के मृत्यु के बाद मृतक की आत्मा मुल आत्मा से मिलती है या नही,ये एक अलग विषय है यदि मुल आत्मा को समुंदर समझ लिया जाए तो मृतक की आत्मा एक बूँद मात्र होती है दोनों का मिलन ही मोक्ष है,स्वयं के अस्तित्व का मिट जाना,इच्छाओ,कामनाओ का मिट जाना ही मुक्ति है मानो कोई भटका हुआ बालक अपने निवास पे पहुच जाता है और निश्चिंत हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति, पशु, पक्षी, जीव, जंतु आदि सभी आत्मा हैं। खुद को यह समझना कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूं। यह आत्मज्ञान के मार्ग पर रखा गया पहला कदम होता है।
' न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो।
यह शरीर पांच तत्वों से बना है- #अग्नि_जल_वायु_पृथ्वी_और_आकाश।
एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।'- ◆◆श्रीगीताजी के अनुसार◆◆
गीताजी में श्रीकृष्ण कहते हैं, मैं हर व्यक्ति में आत्मा रूप में मौजूद हूं, यानी यह आत्मा ईश्वर का ही स्वरूप है।आत्मा को श्रीकृष्ण ने अमर और अविनाशी बताया है। जिसे न शस्त्र काट सकता है,पानी इसे गला नहीं सकता,अग्नि इसे जला नहीं सकती,वायु इसे सोख नहीं सकती।यह तो ऐसा जीव है जो व्यक्ति के कर्मफल के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में भटकता रहता है। मृत्यु के समय आत्मा अपने कर्मों को समेटकर अपनी अधूरी इच्छाओं को पूरी करने के लिए अन्य शरीर की खोज में निकल जाती है,और कर्मों के अनुसार ही आत्मा को नया शरीर कर्मफल भोगने के लिए प्राप्त हो पाता है।
ग्रन्थानुसार आत्मा के तीन स्वरूप माने गए हैं- जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है,उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।मृतात्मा स्थूल शरीर से अलग होने पर सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ट कर जाती है। यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है, जो दिखाई नहीं देता। एक वैज्ञानिक शोध के आधार पर अब भी कई लोग कहते हैं कि इंसान की आत्मा का वज़न तीन चौथाई औंस या फिर 21 ग्राम होता है।खुद मृतात्मा को भी इस शरीर के होने की बस अनुभूति होती है लेकिन कुछ आत्माएं ही इस शरीर को देख पाती हैं।कई मृतात्मा ऐसे होते हैं जो शरीर की अपेक्षा प्रियजनों से अधिक मोह करते हैं। वे मरघटों के स्थान पर प्रिय व्यक्तियों के निकट रहने का प्रयत्न करते हैं।क्योकि मृतात्मा के शरीर को जला दिया जाता है तो वह अपने शरीर के पास मंडराता रहता है और अपने शरीर की गति देख,वह समझ जाता है कि अब उसकी वापसी का कोई मार्ग नही।वही मृत देह को यदि गड़ा दिया जाए तो मृतात्मा इस इंतजार में रहती है कि उसका शरीर उसे वापस मिल जाएगा और वह हजारो वर्ष तक अपनी देह की मोह में देह से बंधी रहती है।अब प्रेतात्मा के प्रतिशोध लेने के इस मामले में उनकी धारणा कार्य करती है कि वह किस तरह की धारणा,विश्वास या प्रतिशोध की भावना लेकर मृत्यु को प्राप्त हुई हैं।यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।
आत्मा एक शरीर का त्याग करती है तथा नूतन वस्त्र की तरह दूसरा देह धारण कर लेती है| परंतु मध्य में कहीं यह तार टूट जाए,तो आत्मा तुरंत जन्म नहीं लेती अपितु प्रेत योनि में चली जाती है|यह स्थान एक कैद की तरह होता है,यदि कर्म अच्छे हुए तो कुछ अंतराल बाद वह स्वयमेव मुक्त हो जाता है अन्यथा हजारो साल तक भटकता रहता है| इस कष्टप्रद योनि में कामनाएँ मानवीय ही होती हैं परंतु भोग के लिए शरीर नहीं होता है| इस तरह की आत्मा सदैव मानव शरीर की ताक में रहती है| पवित्र, मजबूत आत्म शक्ति वाले लोगों के पास भी यह नहीं फटकती।
जो मानव अपना शरीर शुद्ध रखता है नाखून साफ रखता है या समय समय पे काटता रहता है,नित्य स्नान करता है,गालियों का प्रयोग नही करता,भोजन के बाद थाली में अन्न(झूठन) नही छोड़ता,अशुद्ध विचारो से दूर रहता है,अंतर्वस्त्र पवित्र रखता है।अपने इष्ट-गुरु का स्मरण एवम ध्यान पूजन करता है।तो अपवित्र आत्मा ऐसे शरीर से दूर रहती है।प्रेत बाधा से ग्रस्त व्यक्ति की वाणी कठोर और कटु हो जाती है। ऐसा व्यक्ति किसी की नहीं सुनता और अपनी मनमानी करता है। भोजन के प्रति उसकी अरुचि हो जाती है। जब व्यक्ति पूरी तरह से प्रेत के चंगुल में फंस जाता है तो ऐसी अवस्था में वह चीखता, चिल्लाता और रोता रहता है।लेकिन उसकी वाणी और विलाप कोई नही सुन सकता है।यह बहुत कष्टदायक स्थिति होती है।
सभी आत्माये अपवित्र नही होती,कुछ आत्माये शुद्ध एवं दैविक शक्तियों से पूर्ण होती है जो मानव कल्याण हेतु इस संसार मे रहती है किंतु वे पवित्र हो या अपवित्र,इंसान नही होती अतः सामान्य व्यक्ति इन आत्माओ से भयभीत हो जाता है।
प्रतिशोध क्या होता है?प्रतिशोध स्वयं के द्वारा निश्चित किया गया न्याय का एक प्रकार है जो कानून और न्यायशास्त्र के मानक की अवज्ञा से किया जाता है।इसका उपयोग कानून के बाहर जाकर अनुचित हो या उचित (अपनी बुद्धि अनुसार।को दंडित करने के लिए किया जाता है।यह एक एकांकी विषय है।जो आत्मा को उचित लगता है उसके अनुसार आत्मा अपना निर्णय लेती है यह निर्णय उचित एवं अनुचित दोनो हो सकता है सामान्य व्यक्ति का निर्णय अलग-अलग हो सकता है।आत्मा ने मृत्यु के पूर्व जो देखा,जो समझा,जो जाना-पहचाना उसके अनुसार वह प्रतिशोध का निर्णय ले सकती है अपनी सोच-समझ के अनुसार।किन्तु आत्मा की सोच-समझ सही हो यह आवश्यक नही।बालक/बालिका बालबुद्धि से,युवक-युवक्ति अपने युवा अवस्था की बुद्धि से एवं वृद्ध अपनी बुद्धि को परिपक्व समझ कर निर्णय ले सकता है।यदि किसी के साथ अन्याय हुआ है जैसे:-परिश्रम से कमाए धन,गृह,भूमि का क्षल से हड़पना।स्वयं,माता-पिता या वंश पे झूठा दोष लगा के समाज से बहिष्कृत करना,स्त्री का अपमान या उसको अपवित्र करना,आत्मा के पुत्र-पुत्री की हत्या करना,उसे कोसना,कटु वचन कहना,लगातार बद्दुआए(श्राप)देना एवं आत्मा को पीड़ित कर बेवजह उसको मृत्यु देना,ऐसे और भी हजारों अपराध हो सकते है।ऐसी अवस्था मे आत्मा अपनी बुद्धि अनुसार मृत्यु उपरांत भी प्रतिशोध लेने वापस आती है।इन प्रेतात्माओं से लड़ने की शक्ति सामान्य मानव में नही होती है।चरक संहिता में प्रेत बाधा से पीड़ित रोगी के लक्षण और निदान के उपाय विस्तार से मिलते हैं।ज्योतिष साहित्य के मूल ग्रंथों- प्रश्नमार्ग, वृहत्पराषर, होरा सार, फलदीपिका, मानसागरी आदि में ज्योतिषीय योग हैं जो प्रेत पीड़ा, पितृ दोष आदि बाधाओं से मुक्ति का उपाय बताते हैं।अथर्ववेद में भूतों और दुष्ट आत्माओं को भगाने से संबंधित अनेक उपायों का वर्णन मिलता है।इनसे मुक्ति के लिए अच्छा होगा कि आप,इस विद्या को जानने वाले, या विशेषज्ञ की सलाह ले,अन्यथा लाभ की जगह हानि की संभावना रहती है।भुत-प्रेत,पिशाच,डाकिनी,शाकिनी,चुड़ैल और अन्य दुष्ट आत्माओं को भगाने या बांधने से संबंधित अनेक उपायों के साथ-साथ विधि भी,भविष्य में पोस्ट के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत की जाएगी,बस आप किसी विशेषज्ञ की सलाह के अनुसार उसका प्रयोग करे।धन्यवाद
क्रमशः
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◆◆व्यक्तिगत अनुभूति एवं विचार©2022◆◆
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।। #राहुलनाथ ।।™ (ज्योतिष एवं वास्तुशास्त्री)
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#चेतावनी:-इस लेख में वर्णित नियम ,सूत्र,व्याख्याए,तथ्य स्वयं के अभ्यास-अनुभव के आधार पर एवं गुरू-साधु-संतों के कथन,ज्योतिष-वास्तु-वैदिक-तांत्रिक-आध्यात्मिक-साबरी ग्रंथो के आधार पर मात्र शैक्षणिक उद्देश्यों हेतु दी जाती है।अतः बिना गुरु के निर्देशन के साधनाए या प्रयोग ना करे। किसी भी विवाद की स्थिति में लेखक जिम्मेदार नही होगा एवं न्यायलय क्षेत्र दुर्ग छत्तीसगढ़,भारत।©कॉपी राइट एक्ट 1957
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