स्मशान और साधक का वैराग्य
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पुरानान्ते,भोजनान्ते, मैथुनान्ते,स्मशानान्ते च या मते:।
सा मते: सर्वदा चेत् स्यात् को न मुच्यत बंधनात नरो नारायणो भवेत्।।
पुराणों को सुनने के बाद अंत मे मन की गति में परिवर्तन हो जाता है,भोजन ग्रहण करने के बाद अंत मे पेट भर जाने से भोजन से मन हट जाता है।मैथुन की प्रबल इच्छा रखने वाले जीव-मानवो का मैथुन के बाद अचानक मन हट जाती है और इसी प्रकार स्मशान में किसी का दाह संस्कार करने के बाद इस संसार से कुछ समय के लिए मन मे संसार के लिए वैराग्य पैदा हो जाता है और मनुष्य अमन हो जाता है।इस समय जैसी बुद्धि हो जाती है अगर ऐसी बुद्धि सदा के लिए हो जाये तो,ऐसा कौन है जो बंधनो से मुक्त हो नारायण नही बन सकता।
स्मशान एक ऐसा स्थान है जहां प्रवेश करते ही संसार की नश्वरता का आभास होता है,मन मे संसार के लिए वैराग्य पैदा हो जाता है और मनुष्य अमन हो जाता है।स्मशान में जाकर साधना करने का यही अभिप्राय होता है कि वैरागय की भवाना का उदय हो और भय का सर्वनाश हो।किन्तु आज का साधक घर मे रहकर पुस्तकों को पढ़कर सिद्धि प्राप्त करना चाहता है सिद्ध अघोरी या तांत्रिक बनना चाहता है।साधको को यदि साधना सिद्धि में सफलता पानी है तो साधक को कठोर परिश्रम करना ही होगा,गुरुधाम,शिवालय या स्मशान जाना ही होगा,इन स्थानों से रिश्ता-नाता जोड़ना ही होगा।
🕉️🙏🏻🚩जयश्री माहाँकाल 🚩🙏🏻🕉️
लेखन-सम्पादन-संकलन
☯️राहुलनाथ™ 🖋️....
ज्योतिषाचार्य,भिलाई'३६गढ़,भारत
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