आहार द्वारा मन का निर्माण
‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन। जैसा पिये पानी, वैसी बने वाणी। जैसा करे संग, वैसा चढ़े रंग।”
हम जो कुछ भी खाते हैं उसका हमारी मानसिक स्थिति पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि शाकाहारी व्यक्ति दयालु, संवेदनशील, कोमल मन वाले तथा सात्विक प्रवृति वाले होते हैं वहीं उसके विपरीत मांसाहारी व्यक्ति क्रूर, हिंसक, कठोर हृदय वाले तथा तामसिक प्रवृतियों वाले होते हैं।
हमारे ऋषि मुनियों ने आहार को तीन भागों में बांटा है।राजसिक, तामसिक और सात्विक आहार। आधुनिक मेडिकल साइंस भी इस बात को स्वीकार करता है कि जैसा हम भोजन
ग्रहण करते हैं, वैसा हमारे मस्तिष्क में न्यूरोट्रांसमीटर का निर्माण होता है। और जैसा न्यूरोट्रांसमीटर का निर्माण होता है उसी के अनुसार हम दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं। इसलिए आहार हमारे आचार, विचार, व्यवहार सबका नियामक है। वह केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मानसिक और
भावनात्मक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है।
आहार में भय एवं अन्य भावनाओ की उपस्थिति
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आहार में उपस्थित सभी वस्तुएं वो शाकाहारी हो या मांसाहारी या फिर कोई भी वनस्पति,जड़ी-बुटी,फल,फूल ।इन सब में भावनाओ का समावेश होता वे सब भाव पूर्ण ही होते है।इन सभी में ऊर्जा का एक परिपथ होता है जैसा मानव के भीतर होता है इस ब्रम्हांड में होता है।इन सभी वनस्पति ,साग-सब्जी,फल-फूल या फिर मुर्गा,मछली ,बकरी या फिर अन्य मांसाहारी आहार इन सब पे इस बात का पूर्ण रूप से असर पड़ता है कि आप उसे तोड़ते या काँटते कैसे है ।जैसे यदि किसी वनस्पति या फल फूल को आप एक झटके में तोड़ते काँटते या उखाड़ते है तो ऐसे में वनस्पति या अन्य आहार की पौष्टिकता या रोग क्षमन करने वाले औषधीय गुणों में कोई कमी नहीं आती और इनका ऊर्जा परिपथ सामान्य स्थिति में रहता है आयुर्वेद और तंत्र में इसका एक विशेष विधान होता है। वही इन वनस्पतियो या आहार दोनों को यदि आप धीरे-धीरे ,रगड़ के तोड़ते या काँटते है तो इनमें भय एवं दुःख के गुण पैदा हो जाते है।इनका ऊर्जा परिपथ सिकुड़ कर मूलाधार में एकत्रित हो जाता है ।
इस विषय को आप मांसाहार के द्वारा समझ सकते है यदि किसी मुर्गे को आप अचानक मार देते है या उसका शीश अचानक पूर्ण रूप से काँट देते है तो उसे ज्यादा भय या दुःख-दर्द नहीं होता ,जिससे उसके भीतर ये गुण दोष पैदा नहीं होते एवं उसका ऊर्जा परिपथ सामान्य रहता है।वही यदि इस मुर्गे को आप धीरे धीरे मारते है या काँटते है तड़फाते है तो उस मुर्गे के भीतर का ऊर्जा परिपथ सिकुड़ जाता है ,मृत्यु के पूर्व दुःख-दर्द,तड़पन एवं बहुत ज्यादा भय के गुण मुर्गे में पैदा हो जाते है फिर उस मरे मुर्गे के शव को आहार के रूप में ग्रहण करने से यही सब गुण दोष आहार ग्रहण करने वाले के भीतर पैदा होने लगते है ।बार बार इसी प्रकार का आहार ग्रहण करने से ये सारे गुण धीरे-धीरे आचरण से होते हुये संस्कार बन जाते है।अब यहां विचारणीय विषय है कि क्या मांसाहार लेना चाहिए?यदि हां!तो वो कैसा होना चाहिए?
मानव एवं सामान्य जीवो में उपस्थित ऊर्जा परिपथ यदि अचानक टूट जाए तो उसे अकाल मृत्यु कहा गया है जो ऊपर लिखे अनुसार ही गुण धर्म पैदा करता है किंतु इसकी प्रतिक्रिया कामना के अनुसार होती है।सामान्य अवस्था में किसी रोगी के रोग की अवस्था में ऊर्जा का ये परिपथ धीरे-धीरे नष्ट होटा जाता है और आत्मा को मृत्यु का पूर्वानुमान हो जाता है,जिससे वो रोगी और रोगी के परिवार वाले उसकी इच्छाओं को पूर्ण करने का प्रयास करते है ,जिस्से उसकी कामना पूर्ण हो और उसे पुनः जन्म ना लेना पढ़ें ,इस प्रयास के बाद उसकी मृत्यु हो जाती है।वही दुर्घटना की स्थिति में अचानक हुई घटना में शरीर का ऊर्जा परिपथ नष्ट नहीं हो पाता और मात्र शरीर ही नष्ट हो पाता है।इस अचानक आये शरीक और मानसिक परिवर्तन के लिए आत्मा तैयार नहीं होता ,जिसके कारण उसकी कामनाए पूर्ण नहीं हो पाती एवं उसे अपनी कामना पूर्ति के लिये भटकना पड़ता है।इन कामनाओं में मुख्य रूप से प्रेम,काम-वासना एवं भोजन की प्रबलता होती है।इसे शास्त्रो में अकाल मृत्यु कहा जाता है।
आइये मित्रो इस विषय में विज्ञान,साधू संतो एवं गीता जी के प्रवचनों पे एक नजर डाले।इस पोस्ट में आगे कुछ विचारो का संकलन आवश्यकतानुसार किया गया है।
राहुलनाथ
(व्यक्तिगत अनुभूति एवं विचार)
शाकाहार एवं मासाहार
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वास्तव में शाकाहार ही सम्पूर्ण एवं उत्तम आहार है जो हमारे शरीर को बिना कोई नुकसान पहुंचाये शरीर की सभी आवश्यकताओं की सही अर्थों में पूर्ति करता है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त सभी खाद्य वस्तुओं जैसे हरी शाक-सब्जी, फल, दालें, अनाज, दूध आदि सभी में मनुष्य के शरीर के लिये सभी आवश्यक पोषक पदार्थ जैसे प्रोटीन, विटामिन, मिनरल, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा भरपूर मात्रा में होते हैं। अत: हमें अपने शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मांसाहार की कतई आवश्यकता नहीं है। पहले माना जाता था कि अंडा तथा अन्य मांसाहारी पदार्थों में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है परंतु अब वैज्ञानिकों तथा डाक्टरों ने इस तथ्य को नकार दिया है। प्रयोगों से यह सिध्द हो चुका है कि शाकाहारी पदार्थों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा खनिजों की मात्रा मांसाहारी पदार्थों से कही अधिक होती है। उदाहरण के तौर पर सोयाबीन के प्रति 100 ग्रा. में प्रोटीन 43.2 प्रतिशत तथा मूंग व मूंगफली के प्रति 100 ग्रा. में क्रमश: 24.0 प्रतिशत तथा 31.9 प्रतिशत प्रोटीन होता है जबकि अंडा, मछली व बकरे के मांस में क्रमश: केवल 13,3 22.6 तथा 18.5 ग्राम प्रोटीन होता है। इसी प्रकार शाकाहारी भोज्य पदार्थों में खनिज, कार्बोहाइड्रेट तथा विटामिन्स की मात्रा भी मांसाहारी पदार्थों की तुलना में कहीं अधिक होती है।
आहार एवं संस्कार
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निश्चित रूप से आज के समय में युवा पीढ़ी का अन्न और मन दोनों बदल चुके हैं। पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध और सुविधाओं से लैस युवा पीढ़ी में रफ्तार तो है लेकिन संयम की कमी लगतार बढ़ती जा रही है।संस्कार की कमी बढती जा रही है ।हमारे संस्कारों की प्रथम पाठशाला परिवार ही होती है। जबसे संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवारों में परिवर्तित हुए हैं तब से बच्चों के संस्कार, रिश्तों की पहचान समाप्त हो गई है। वहीं आज की भागदौड़ भरी जि़ंदगी में एकल परिवार में मां-बाप को बच्चों को संस्कार देने, निगरानी करने और साथ बैठकर बातचीत करने का समय ही नहीं है। बचपन से ही बच्चे टीवी, लैपटाप तथा मोबाइल के टच स्क्रीन पर उंगलियां घुमाने लगते हैं। जानते हुए भी वे क्या कर रहे होते हैं परंतु उनके इस स्वच्छन्द कार्य में जरा-सा विघ्न पड़ जाये तो वे क्रोध की सभी सीमाएं लांघ देते हैं। आज बच्चों को संस्कारों से सही मार्गदर्शन देने से समस्या में अवश्य ही कमी आयेगी। छोटे बच्चों पर बचपन से ही अतिरिक्त ध्यान देने व संभालने में ही समझदारी है। बच्चों को आयु, समय के हिसाब से ही सुविधाएं देनी चाहिए, न कि उनकी जिद एवं आग्रह के आगे नत्मस्तक हो जायें।(एम.एल. शर्मा, कुरुक्षेत्र,)
आज का युवा वर्ग नाश्ते में बर्गर, पिज्जा जैसे जंक फूड लेते हैं जो स्वास्थ्य की दृष्टि से तो ठीक नहीं हैं। वे मन पर भी वैसा ही प्रभाव छोड़ रहे हैं। ऐसे में संयम कहां रह पायेगा।
आज की युवा पीढ़ी शराब, सिगरेट, बीयर, पेप्सी चाय-काफी आदि भोज्य-पदार्थों से जीवन शक्ति प्राप्त कर रही है। निश्चित रूप से कहावत सटीक बैठती है
"बोये पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। "
शास्त्रानुसार आहार के 5 दोष
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01. अर्थदोषः जिस धन से, जिस कमाई से अन्न खरीदा गया हो वह धन, वह कमाई ईमानदारी की हो । असत्य आचरण द्वारा की गई कमाई से, किसी निरपराध को कष्ट देकर, पीड़ा देकर की गई कमाई से तथा राजा, वेश्या, कसाई, चोर के धन से प्राप्त अन्न दूषित है । इससे मन शुद्ध नहीं रहता ।
02.निमित्त दोषः आपके लिए भोजन बनाने वाला व्यक्ति कैसा है? भोजन बनाने वाले व्यक्ति के संस्कार और स्वभाव भोजन में भी उतर आते हैं । इसलिए भोजन बनाने वाला व्यक्ति पवित्र, सदाचारी, सुहृद, सेवाभावी, सत्यनिष्ठ हो यह जरूरी है ।
पवित्र व्यक्ति के हाथों से बना हुआ भोजन भी कुत्ता, कौवा, चींटी आदि के द्वारा छुआ हुआ हो तो वह भोजन अपवित्र है।
03.स्थान दोषः भोजन जहाँ बनाया जाय वह स्थान भी शांत, स्वच्छ और पवित्र परमाणुओं से युक्त होना चाहिए । जहाँ बार-बार कलह होता हो वह स्थान अपवित्र है । स्मशान, मल-मूत्रत्याग का स्थान, कोई कचहरी, अस्पताल आदि स्थानों के बिल्कुल निकट बनाया हुआ भोजन अपवित्र है। वहाँ बैठकर भोजन करना भी ग्लानिप्रद है ।
04.जाति दोषः भोजन उन्ही पदार्थों से बनना चाहिए जो सात्त्विक हों । दूध, घी, चावल, आटा, मूँग, लौकी, परवल, करेला, भाजी आदि सात्त्विक पदार्थ हैं । इनसे निर्मित भोजन सात्त्विक बनेगा । इससे विपरीत, तीखे, खट्टे, चटपटे, अधिक नमकीन, मिठाईयाँ आदि पदार्थों से निर्मित भोजन रजोगुण बढ़ाता है । लहसुन, प्याज, मांस-मछली, अंडे आदि जाति से ही अपवित्र हैं । उनसे परहेज करना चाहिए नहीं तो अशांति, रोग और चिन्ताएँ बढ़ेंगी ।
05.संस्कार दोषः भोजन बनाने के लिए अच्छे, शुद्ध, पवित्र पदार्थों को लिया जाये किन्तु यदि उनके ऊपर विपरीत संस्कार किया जाये – जैसे पदार्थों को तला जाये, आथा दिया जाये, भोजन तैयार करके तीन घंटे से ज्यादा समय रखकर खाया जाये तो ऐसा भोजन रजो-तमोगुण पैदा करनेवाला हो जाता है।
प्रेम पूर्वक बनाये अन्न से प्रेम और भक्ति
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संसार में रहकर भी प्रभु की तरफ ध्यान लगा रहे-बस यही प्रेम है, यही भक्ति है।
पाप करें, मुक्ति मिले। पाप करे दुःख न होय।।
पाप करे, प्रभुजी मिले। तो पाप करे सभी कोय।।
यह है सुख-दुःख की परिभाषा, नहीं समझे ना तो देखियें।
पा-पकरे मुक्ति मिले, पा-पकरे दुःखन होय
पा-पकरे प्रभुजी मिलें, पा-करे सभी कोय
अन्न के विषय में संत कबीर कहते है :-
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जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
अन्न के विषय में महाभारत का एक प्रसंग
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महाभारत में अन्न के विषय में एक बात समझने की है कि देवी द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तब भीष्म पितामह सभा में चुप -चाप बैठे रहे। बल्कि भीष्म पितामह का दोनों पक्षो में सम्मान व स्थान ऐसा था कि यदि वो एक नज़र भी उठा देते तो कौरवों की हिम्मत नहीं होती देवी द्रौपदी का हाथ लगाने की। पर भीष्म पितामह नीची दृष्टि किये बैठे रहे,
यहां भीष्म पितामह की गलती नहीं थी – क्योकि उस वक्त भीष्म पितामह दुर्योधन का अन्न खा रहे थे, तो उनकी बुद्धि भी वैसी ही हो गयी थी। जैसा खाये अन्न, वैसा भए मन।
मासाहार के विषय में श्रीगीता जी के वचन
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श्रीगीता में भी कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। जिस तरह का आदमी भोजन करता है वही तत्व उसके रक्त कणों में मिल जाते हैं। यही रक्त हमारी देह के सभी तरफ बहकर समस्त अंगों को संचालित करता है। उसके तत्व उन अंगों पर प्रभाव डालते हैं। जिस जीव की हत्या की गयी है मरते समय उसकी पीड़ा के अव्यक्त तत्व भी उसके मांस में रह जाते हैं। यही तत्व आदमी के पेट में पहुंच जब अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करते हैं जिससे मनुष्य में दिमागी और मानसिक विकृत्तियां पैदा होती है। पश्चिमी वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध किया है कि मांसाहारी की बजाय शाकाहार मनुष्य अधिक उदार होते हैं।
दूसरी बात यह है कि मांस से मनुष्य की प्रवृत्ति भी मांसाहारी हो जाती है। उसमेें संवेदनशीलता के भाव की कमी आ जाती है। ऐसे लोगों से मित्रता या संगत करने से अपनी अंदर भी विकृत्तियां पैदा हो सकती हैं। अनेक ऐसे परिवार हैं जिसमें मांस भक्षण की परंपरा है पर उनमें में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो शाकाहारी होने के कारण भगवान के भक्त हो जाते हैं।
मासाहार के विषय में कबीर के विचार
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"मासांहारी मानवा, परतछ राछस जान।
ताकी संगति मति करै, होय भक्ति में हान।।"
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मांसाहार मनुष्य को राक्षसीवृत्ति का स्वामी ही समझना चाहिए। उसकी संगति करने
"कभी न करें इससे भक्ति की हानि होती है।
मांस खाय ते ढेड़ सब, मद पीवै सो नीच।
कुल की दुरमति परिहरै, राम कहै सो ऊंच।।"
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जो मांस खाते हैं वह सब मूर्ख और मदिरा का सेवन करने वाले नीच होते हैं। जिनके कुल में यह परंपराएं हैं उनका त्याग कर जो भगवान श्रीराम का स्मरण करते है वहीं श्रेष्ठ है।
कुसंग से बचो, सत्संग करो
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पतिस्पर्धा एवं दिखावा आज जीवन के हर मोड़ पर देखा जाता है फिर वो कोई भी क्षेत्र हो यहाँ आहार के विषय में भी कुछ ऐसा ही दिखता है ।बहुत से युवाओं से जब ये पूछा गया कि,क्या वे मासाहार अपने संस्कारो के अनुसार करते है तो एक बड़ा युवा वर्ग या मांसाहारी ये कहते पाये गए की,उन्होंने मांसाहार अपने दोस्तों के साथ शुरू की,मदिरा का सेवन ,सिगरेट का सेवन उन्होंने अपने मित्रों के साथ ही शुरू किया था ।कुछ युवाओं ने जवाब दिया के उनके माता-पिता को देख कर उन्होंने मांसाहार या मदिरा सिगरेट इत्यादि का सेवन प्रारम्भ किया।मित्रता में रहक़र् ऐसे युवाओं ने भी मांसाहार,मदिरा एवं सिगरेट की शुरुआत उन्होंने मित्रो के द्वारा प्राप्त हुआ बल्कि उनके पूरे कुल में कोई भी इन वस्तुओं का भोग नहीं करते थे।
यहां आज के युवा पढ़े लिखे है ,सोशल मीडिया से जुड़े हुए है उन्हें चाहिए की कुछ अध्यन इस विषय में भी वे करे और अध्यन के बाद ही उन्हें ये समझ आ सकता है कि उन्होंने इस भवर में फसना है कि नहीं।
इस विषय में एक बोध कथा प्रस्तुत है
एक बोध कथा
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दो नाविक थे। वे नाव द्वारा नदी की सैर करके सायंकाल तट पर पहुँचे और एक-दूसरे से कुशलता का समाचार एवं अनुभव पूछने लगे। पहले नाविक ने कहाः "भाई ! मैं तो ऐसा चतुर हूँ कि जब नाव भँवर के पास जाती है, तब चतुराई से उसे तत्काल बाहर निकाल लेता हूँ।" तब दूसरा नाविक बोलाः "मैं ऐसा कुशल नाविक हूँ कि नाव को भँवर के पास जाने ही नहीं देता।"
अब दोनों में से श्रेष्ठ नाविक कौन है ? स्पष्टतः दूसरा नाविक ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह भँवर के पास जाता ही नहीं। पहला नाविक तो किसी न किसी दिन भँवर का शिकार हो ही जायगा।
आहार एवं आध्यात्मिक साधक
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अध्यात्म पथ के साधकों के लिए सात्विक आहार का विधान है। राजसिक आहार में घी, तेल, मक्खन आदि का खूब उपयोग होता है। ऐसा आहार हमारी इंद्रियों को उत्तेजित करता है। अध्यात्म साधना के साधक को ऐसे आहार का प्रयोग अधिक नहीं करना चाहिए। तामसिक आहार में खूब मिर्च मसालों का प्रयोग होता है। यह आहार हमारे भीतर तमस और आक्रामकता
पैदा करता है। इसीलिए अध्यात्म पथ के राही एक साधक के लिए प्याज, लहसुन, मांसाहार आदि मना हैं। सात्विक आहार शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक और भावनात्मक
स्वास्थ्य को ठीक बनाये रखने में भी सहायक होता है। आयुर्वेद में हित, मित और ऋत आहार का जिक्र मिलता है। हित अर्थात हितकर। कई चीजें खाते समय स्वाद में अच्छी लगती हैं,
लेकिन वे शरीर के लिए हितकर नहीं होतीं। प्रिय और हितकर में
बड़ा फर्क है। चीनी बड़ी मीठी लगती है, लेकिन शरीर में अम्लता पैदा करती है। आंवला खाने में कसैला लगता है, लेकिन बहुत गुणकारी है। आयुर्वेद में उसे अमृत फल कहा गया है। मित
अर्थात मात्रा में अल्प। आहार में मात्रा का विवेक भी जरूरी है। लोग सोचते हैं कि जो ज्यादा खाता है वह लंबा जीवन पाता है। सच यह है कि जो कम खाता है वह स्वस्थ लंबी उम्र पाता है।
भगवान महावीर ने कठोर साधना के दौरान इस रहस्य को समझ
लिया था कि आहार को समझे बिना अध्यात्म नहीं समझा जा
सकता। अध्यात्म के शिखर तक पंहुचने के लिए आहार का विवेक
जरूरी है। आज की बदलती जीवन शैली और फास्ट फूड कल्चर
नयी पीढ़ी को मोटापे की ओर धकेल रहा है। ऐसे में उपवास बड़े
काम की चीज है। उपवास का अर्थ है निराहार रहना। जैन साधक पद्धति में उपवास में निराहार रहना होता है। उसका कारण है निराहारता आत्मा के निकट निवास करने में सहायक
बनती है। इस दौरान इंद्रिय और मन शांत रहता है। आत्मा के निकट निवास करने का अर्थ है काम, क्रोध, मद, लोभ आदि से मुक्त होना। ऊनोदरी तप बहुत ही महत्वपूर्ण है। ऊनोदरी दो
शब्दों से बना है। ऊन उदर अर्थात पेट की आवश्यकता से कुछ कम
खाना। ऊनोदरी तप से मोटापे और उसके कारण पैदा होने वाली बहुत सी बीमारियों से बचा जा सकता है।..राम
संकलक एवं लेखन
!!राहुलनाथ,भिलाई!!
*****जयश्री महाकाल****
******स्वामी राहुलनाथ********
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।। मेरी भक्ति गुरु की शक्ति।।
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(©कॉपी राइट एक्ट 1957)
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