"भोग" एवम् "स्वाद" की "कामना" से आत्मा शरीर धारण करता है।
ये "कामना" ही हमें मुक्त नहीं होने देती।कामनाओ से मुक्ति ही मोक्ष है।
अशरीर आत्मा सिवाय भोग ,स्पर्श एवम् स्वाद के सभी कार्य करने में सक्षम होती है आत्मा का शरीर धारण करने का मुख्य कारण ही कामना है।जब तक ये कामना ख़त्म नहीं होती तब तक आत्मा बार-बार जन्म लेता रहता है।
आत्मा के बार बार जन्म लेने का मुख्य कारण है आत्मा की कामना का बार-बार बदल जाना।
जैसे आत्मा स्वाद की कामना से भोजन खाता है और तृप्त हो जाता है किन्तु भोजन से उत्पन्न काम ऊर्जा के जाल में फंस जाता है।और भोग में लिप्त हो जाता है।भोग की समाप्ति के उपरान्त आत्मा ,स्वाद की कामना से भोजन खाता है और पुनः भोग में लग जाता है इसी प्रकार ये चक्र चलता रहता है यह चक्र ही काल(समय)कहलाता है और जो इससे भी पर हो वो ही महाकाल है।
कामना ही प्रकृति है जो हमेशा अस्थिर होती है बदलते रहती है।इसके विपरीत शिव है जो निर्लिप्त है निर्विकार है स्थिर है सहज है।यही बात शिव को प्रकृति से भिन्न करती है ।अवघड दानी,अवधूत शिव जो कामना से रहित है जो मिला खा लिया ना भोजन की कामना,जो मिला उसे धारण कर लिया ना भोजन की कामना,जहा मन को भाया वही थम गया ना निवास की कामना।कामना का शिव के भीतर जागना ही अर्थनारीश्वर कहलाता है जहा शिव एवम् प्रकृति दोनों साथ होते है।
आत्मा की कामना हीन अवस्था ही शिव कहलाती है किन्तु इस बात का कोई निश्चित नहीं की शिव में कभी कामना जागेगी या नहीं।
आत्मा का उद्देश्य ज्ञान पाना नहीं है क्योकि ज्ञान पाने की इच्छा भी कामना ही कहलाती है।जो खुद के वष में हो वही शिव है।
शिव एक सागर है जो जल का नहीं,जहा लहरे उठा करती है तरंगे निकला करती है बल्कि एक ऐसे सागर है जो बर्फ से भरा है शांत है स्थिर है जंघम है।
शिवकी साधना करना मतलब जंघम हो जाना ,स्थिर हो जाना।शिव के भीतर ज्ञान है किन्तु ज्ञान शिव नहीं है वे ज्ञान से भी परे है। सहज हो जाना,जो जैसा है उसे वैसी अवस्था में ही ग्रहण कर लेना ही शिवत्व की प्राप्ति है।
""जयश्री महाकाल""
(व्यक्तिगत अनुभूति एवं विचार )
******राहुलनाथ********
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