#महाकालसंहिता(तंत्र)गुह्यकालीखंड:(भाग-४)
#शक्ति-शाक्त तंत्र की चर्चा आने पर पहला
प्रश्न उठता है की शक्ति क्या है? शक्ति की अवधारणा आस्तिक-नास्तिक सभी लोगों के मन में सुदूर प्राचीन या यूं कहिए अनादि काल से है दार्शनिक एवं मनीषीगण तो शक्ति की सत्ता का स्वीकार करते ही है वैज्ञानिक भी इसके अस्तित्व का निषेध नहीं करते,प्रत्युत उनके मतानुसार शक्ति ही एकमात्र मूलतत्व है जिससे विश्व का विकास अथवा प्रादुर्भाव हुआ है वैज्ञानिकों के मत से शक्ति जड़ है सांख्य दर्शन भी शक्ति (प्रकृति) को जड़ मानता है।
विश्व के सर्व प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में उषा सूक्त(१/३०/२०-22,१/९२/१-१५)में शक्ति का वर्णन है भगवती अदिति को भूतों की माता, आदित्य की जननी,समस्त जगत की उद्भाविका और जगत को अपने में लीन करने वाली शक्ति कहा गया है( ऋ.१/७२,८९/९-१०)। ऋग्वेद में रात्रि सूक्त में रात्रि देवी की प्रशंसा की गई है- वह जगत की जीवो के शुभ अशुभ कर्मों को देखती है उन्हें फल देने के लिए समस्त विभूतियां धारण करती है। वह अमर है। सबको व्याप्त कर स्थित है ।पराचित्त शक्तिरूपा रात्रि देवी अपनी बहन उषा को प्रकट करती है जिससे अंधकार दूर होता है। रात्रि देवी के आने पर हम उसी प्रकार सुख पूर्वक सोते हैं जैसे पक्षी वृक्षो पर।हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी! सर्वत्र फैलता हुआ यह अंधकार हमारे पास आ पहुंचा है आप उसे दूर करें।
अथर्ववेद में शक्ति की चर्चा के संदर्भ में यहां एक लघु कथा का वर्णन किया जा रहा है समस्त देवताओं के समक्ष ज्योतिर्मयी शक्ति के प्रकट होने पर जब देवताओं ने उससे परिचय पूछा तो शक्ति ने कहा-
अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यम् च।।
समस्त देवता देवी के सन्मुख प्रकट हुए और नम्रता से पूछने लगे। हे महादेवी तुम कौन हो। देवी ने उत्तर दिया, मैं ब्रह्मा स्वरूप हूँ। मुझसे प्रकीर्ति, समस्त पुरुष तथा असद्रूप तथा सद्रूप जगत उत्पन्न हुआ हैं।
अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्।।
मैं ही आनंद तथा अनानन्दरूपा हूँ, विज्ञानं और अविज्ञान मैं हूँ, जानने योग्य ब्रह्म और अब्राहम भी मैं ही हूँ, पांच महा भूतो से और बिना पांच भूतो से निर्मित तत्व भी मैं ही हूँ। यह समस्त दृष्टि गोचर जगत भी मैं ही हूँ।
वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।।
वेद और अवेद, विद्या और अविद्या, अजा और अनजा, निचे और ऊपर, अगल और बगल सभी ओर मैं ही हूँ।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि। अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि। अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ।।
मैं ही रुद्रो तथा वसुओं के रूप में संचार करती हूँ, मैं आदित्यों और विश्वेदेवो के रूपों में विद्यमान हूँ, मैं मित्र और वरुण दोनों का, इंद्रा अवं अग्नि का और दोनों अश्विनी कुमारो का भरण पोषण करती हूँ।
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि।
अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि।।
मैं सोम, त्वष्टा, पूषा तथा भाग को धारण करती हूँ, तीनो लोको को आक्रांत करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मा और प्रजापतियों को धारण करती हूँ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।।
देवताओं को उत्तम हवि पहुंचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमानो के लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं संपूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासको को धन देने वाली, ब्रह्म रूपा और यज्ञ होमो मैं प्रधान हूँ।.
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। य एवम् वेद। स देवीं सम्पदमाप्नोति।।
मैं आत्म स्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्म स्वरूप को धारण करने वाली बुद्धि वृति में है। जो इस प्रकार जनता हैं, देवी संपत्ति लाभ करता हैं।
आगे ऋषि का वचन है-
एषात्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी
पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा । एषा श्रीमहाविद्या ॥
आगे भी इसी प्रकार का वर्णन है सारांश यह है कि शक्ति ही ब्रह्म है ।वही ब्रह्माविष्णुरुद्र, सत्व,रजस, तमस,प्रजापति,इंद्र,मनु,ग्रह,नक्षत्र,कला,काष्ठा, काल सब कुछ है निशित काल में शक्ति की अवधारणा अधिक स्पष्ट और व्यापक दिखलाई पड़ती है बृहदारण्यक उपनिषद में शक्ति की चर्चा माया नाम से की गई है-
इन्द्रो मायाभिः पुरु रूप इयते(२/५/१९)।
छांदोग्य उपनिषद के आरुणिश्वेतकेतु संवाद में उद्दालक आरुणि ने कहा-हे पुत्र बरगद के फल के अंदर वर्तमान एक दाने को तोड़ने पर जो कुछ नहीं दिखाई देता वही 'अणिमा' सब कुछ है इसी प्रकार सनत कुमार ने नारद से कहा-वाक आशा प्राण श्रद्धा निष्ठा कृति भूमा जिज्ञास्य है वाक आदि शक्ति के ही रूप है वह अलिंग और सर्वलिंग है।
केनोपनिषद में देवताओं की गर्व को दूर करने के लिए देवी ने प्रकट होकर अपना परिचय दिया-
स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रीयमाजगाम।बहुशः शोभामानामुमां हैमवतिम(३/२४)।
श्वेता अक्षर उपनिषदों की अपेक्षाकृत परिवर्ती माना जाता है में वर्ण आता है।
परवर्ती काल में तो अनेक उपनिषदें शक्ति को केंद्र बनाकर लिखी गई सितोपनिषद,सावित्रयुपनिषद ,अन्नपूर्णोपनिष्त,त्रिपुरातापिनयुपनिष्त,देव्युपनिष्त,त्रिपुरोपनिष्त,बहवृचोपनिष्त,आदि शक्ति के ही नाना रूपों से संबंध उपनिषद है बृहज्ज़ाबालोपनिषद में कहा गया है कि जिस प्रकार अग्नि सर्वत्र व्याप्त है उसी प्रकार चित शक्ति भी सब सर्वत्र व्याप्त है इसे शक्ति का वर्णन मां सरस्वती श्री गौरी प्रकृति एवं विद्या के नाम से किया गया है
निम्लिखित पोस्ट को लिखने के लिए "महाकालसंहिता" का सहयोग लिया गया है।यदि ये तंत्रोक्त जानकारी जिसका उद्गम भगवान शिव के मुखारबिंद से है यदि आप भक्तो को पसंद आती है तो भविष्य में इस पे लगातार मेरी कलम चलते रहेगी।
क्रमशः
🚩जै श्री महाकाल🚩
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