शिवोहं-तंत्र एवं शक्ति का परिचय
ब्रह्मा जी ने शक्ति से प्रश्न किया की हे देवी आप स्त्री है या पुरुष?
इस प्रश्न के उत्तर में देवी ने कहा हे ब्रह्मा !"पुरुष और मैं एक ही हूं।मुझमे और पुरुष में कोई भी भेद नहीं है जो पुरुष है,वही मैं हूँ और जो मैं हूं,वही पुरुष हैं।"
इसीलिए तंत्र कथनानुसार "सच्चिदानंदरूपिणी देवी की स्त्री,पुरुष एवं शुद्ध ब्रह्म रूप में उपासना करनी चाहिए।
यहां हम कह सकते है कि इस संसार के अन्तर में निवास करने वाली निर्विकार सत्ता का नाम ही "शिव"है और उसकी क्रिया का नाम ही शक्ति है।शिव इस शक्ति के बिना क्रिया हीन हो जाते है क्योंकि चित्,आनंद,इच्छा,ज्ञान एवं क्रिया शक्ति जैसे सभी प्रधान नाम इस शक्ति के ही।शिव पुराण के अनुसार शिव-शक्ति का संयोग ही परमात्मा है। शिव की जो पराशक्ति है उससे चित् शक्ति प्रकट होती है। चित् शक्ति से आनंद शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, आनंद शक्ति से इच्छाशक्ति का उद्भव हुआ है,
जहां भी कोई क्रिया होगी वो शक्ति ही कहलायेगी,फिर वो ध्यान-धारण,श्रवण,दर्शन,भोजन,ज्ञान,योग,त्राटक,साधना,अध्यन या भक्ति ही क्यों ना हो।पूर्णतः निष्क्रिय अवस्था ही शिव है बाकी सब शक्ति है।
अर्द्धनारीनरवपु: प्रचंडोSति शरीरवान ।
विभजात्मानभिट्युक्तवा तं ब्रह्मान्तर्द धेतत:।।
अर्थात सृष्टि के आरंभ में रुद्र आधे शरीर से पुरुष और आधे शरीर से नारी हुए यह जानकर ब्रहमा संतुष्ट हुए और उसका विभाजन की प्रेरणा दी ताकि सृष्टि का संचालन किया जा सके।
शास्त्रों ने पुरुष को तभी पूर्ण माना है जब उससे नारी संयुक्त हो जाती है नारी के अभाव में वह अपूर्ण,अधूरा रहता है
भविष्य पुराण के सातवें अध्याय में लिखा है
"पुमाबद्ध पुमास्तावद्यावाद्भार्या"
पुरुष का क्लेवर तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं करता जब तक कि उसके आधे अंग को आकार नारी नहीं भर देती।।
शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं।शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर है जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध। आएं तथा प्रार्थना करें शिव-शक्ति के इस अर्धनारीश्वर स्वरूप का इस अर्धनारीश्वर स्तोत्र द्वारा।शिव में जो ई की मात्रा है, वह शक्ति का ही प्रतीक है और अगर शिव से ई की मात्रा हटा दी जाए, तो वह महज शव रह जाता है। शक्ति जब शांत होती है, तब वह शिव कहलाती है। ये दोनों तत्व ब्रह्मांड का आधार हैं।
शिव के अवतार के साथ यदि महाविद्या का भी वर्णन हो, तब शिव के दस अवतारों की चर्चा की जाती है। यहां पर प्रत्येक अवतार के साथ उनकी शक्ति का वर्णन है। दस महाविद्याओं में शिव की दस शक्तियां आ जाती हैं। विद्या का अर्थ शक्ति भी होता है। अत: दस महाविद्याएं या महाशक्तियां एक ही हैं।
भगवान शिव का पहला अवतार ‘महाकाल’ अवतार है। यह अवतार सद्वृत्ति वाले प्राणियों को भक्ति और मुक्ति देने वाला है तथा उसकी महाकाली शक्ति भक्तों की इच्छा पूर्ण करती हैं। भगवान रुद्र का दूसरा अवतार ‘तारा’ नाम से हुआ है। यह अवतार सज्जन प्राणियों तथा अपने भक्तों, सेवकों को सुख व मुक्ति प्रदान करता है। तीसरा अवतार ‘बाल भुवनेश’ है, जिनकी बाला भुवनेशी नामक शक्ति हैं। भगवान शिव का चतुर्थ अवतार ‘षोड्श विद्येश’ हुआ, जिनकी षोड्शी शक्ति हुईं। इनकी अर्चना से पाप नष्ट होते हैं। पांचवां अवतार ‘भैरव’ हैं, जिनकी गिरजा नामक भैरवी शक्ति हैं। भगवान रुद्र का छठा अवतार ‘छिन्नमस्तक’ है।
इनकी छिन्नमस्तका गिरजा नामक शक्ति हैं। भगवान शिव का सातवां अवतार ‘धूम्रवान’ नाम से हुआ, जिसकी धूमवती नाम की शक्ति हैं। आठवां अवतार ‘बगलामुख’ नाम से हुआ, जिसकी बगुलामुखी नामक शक्ति हैं। इस अवतार की आराधना से प्रबल से प्रबल शत्रु निस्तेज हो जाता है। शत्रु नाश के लिए इस अवतार की आराधना करनी चाहिए। नवां अवतार ‘मातंग’ नाम से हुआ। इनकी मातंगी शक्ति सज्जन व्यक्तियों के लिए शुभ, मुक्ति तथा भुक्ति देने वाली हैं। दसवां अवतार ‘कमल’ नाम से हुआ। इनकी शक्ति कमला हैं, जो भक्तों का पालन करने वाली हैं।
भगवान शिव के दसों अवतार तंत्र शास्त्र से सम्बंध रखते हैं। इनकी शक्तियों की महिमा अद्भुत और अलौकिक है।
शिव कारण हैं; शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती।
शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल समान हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।
देवी भागवत में सावित्री सी पूछने देवी भागवत में सावित्री की पूछने पर यमराज ने शक्ति तत्व को समझाते हुए कहा वे भगवती सर्व आत्मा सब का है उनको सबका ईश्वर और कारणों का भी कारण समझो वही सब को आदि और सबका परी पालन करने वाली है विनीत रूपी नित्यानंद आकृति रहित निरंकुश निर्गुण निरा में तथा आशंका रहित है वही निर्मित सबकी सर्व साक्षी सबकी आधार पर आ तक पर फरमाया विशिष्ट मुड़ स्थिति तथा सभी विकारों को उत्पत्ति करने वाली है परमात्मा ही प्रकृति से मिलकर प्रकृति खाने लगते हैं प्रकृति ही शक्ति महामाया सच्चिदानंद धारण कर दी है वह रूट रहित होकर भी भक्तों पर अनुग्रह करने की हेतु विभिन्न रूपों को धारण करती है
जिस तरह श्वेत, पित्तादि सभी रंग काले रंग में विलीन हो जाते हैं उसी प्रकार समस्त भूत (पंचतत्व)का विलनीकरण प्रकृति में हो जाता है इसलिए योगी जनों की उपास्य, निर्गुण,निराकरण पराशक्ति कृष्ण वर्ण की वर्णन की गई है अविनाशी कालस्वरुप अव्यय महाकाली के ललाट में दो चंद्रकला का चिन्ह बतलाया गया है उसका आशय यही है कि वह चंद्र सूर्य और अग्निरूपी नेत्रो से समस्त जगत का निरीक्षण कर रही है इसलिए उसके तीन नेत्र कहे गए है एवं वह समस्त प्राणियों को ग्रास करती है और अपने कालरूपी दांतो द्वारा चबा डालती है इसी से उसके वस्त्र रक्तवर्ण के कहे गए है विपत्ति काल में वह सज्जनों की रक्षा भी करती है इसिलिए उसके हाथ में वर और अभय बताए गए हैं वह देवी रोज गुण जनित विश्व में व्याप्त है इसलिए लाल कमल पर विराजमान बतलाया गया है वह कालरुप और समस्त जीवात्मा की साक्षी स्वरुप देवी मोहरूपी मदिरा पिकर नृत्य करने वाले काल को देख कर हंस रही है ।
यह देवी की प्रतिकात्मक स्वरुप का वर्णन है उसका स्वभाविक शुक्ष्म और दार्शनिक रूप तो कुछ और ही है।
देव्यअथर्वशीर्ष में देवी ने कहा की प्रकृति-पुरुषात्मक जगत का अभिर्भाव मुझसे ही हुआ है और मैं ब्रह्मस्वरूपिणी हूं-
।।अहं ब्रह्मस्वरूपिणी मत्त: प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत न्यंचाशून्यनच।।
और यह भी घोषणा की है कि मैं ही जगत हूं
"अहमखिलंहम जगत"
भगवती ने माया से भी अपने अभेद का वर्णन किया है और कहां है की माया शक्ति ही विश्व का निर्माण करती है व्यवहारिक रूप से जो माया और अविद्या है वह भी मुझसे अलग नहीं है
देवी के विराट रुप का वर्णन इसप्रकार किया गया है
व्यवहारदृशायेयं विद्यामामेति विश्रुता।
तत्वदृष्टया तू वासत्येव तत्वमेवास्ति केवलं।।
उस विराट रुप का स्वर्ग-मस्तक,सूर्य और चंद्रमा-नेत्र,दिशाएं-कान,वायु- प्राण, ह्रदय-जगत,टांगे-पृथ्वी,व्योम-नाभि,नक्षत्र-छाती,महर्लोक-कंठ,जनलोक-मुख,देवता-बाहूं,अश्वनीकुमार-नासिका,मुख-अग्नि,पलकें- दिन-रात,समुद्र-पेट,पर्वत-हड्डी,नदी-नाड़ी,वृक्ष-केश,दोनों संध्याये-वस्त्र,चंद्रमा-मन,विज्ञान-शक्ति-विष्णु,अंतकरण-महेश,शब्द-श्रवण, गंध-घ्राणेन्द्रिय,रस-रसना,मुख-अग्नि है।
।।देवी साधना व् नैतिक पक्ष।।
देवी उपासना की स्थापना का उद्देश्य यही है कि समाज में स्त्रियों के प्रति आदर और सम्मान के भाव का जागरुक होना जिस तरह साधक अपने इष्ट देवी को जगत माता के रूप में देखता है उसी तरह से विश्व की हर स्त्री में वह अपने इष्ट देव का ध्यान करें और उसे पवित्र भाव से देखें ,ऋषियों ने अनुभव किया था कि मनुष्य की इंद्रियां बलवान घोड़ों की तरह सशक्त होती है वह अपनी तृप्ति के लिए,उसे अपने इच्छित मार्ग पर घसीट कर ले जाती है इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य अंधा हो जाता है उसकी सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है विवेक उसका साथ छोड़ देता है इंद्रियां रूपी घोड़े जहां ही उसे ले जाते हैं मदमस्त हाथी की भांति वो उसका पीछा करता है और गड्ढे में गिर जाता है इतिहास साक्षी है कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी कभी-कभी इंद्रियों को अपने वश में ना रख सके ।उनके पैर डगमगाए और वह गलत रास्ते पर चल पड़े,जिससे आज तक उनके माथे का कलंक का टीका लगा हुआ है विश्वामित्र जैसे महान तपस्वी ऋषि जिन्होंने नवीन सृष्टि की रचना का सहारा किया है वह भी एक अपसरा के काम जाल में फस गए और् भोग-क्रिया में लंबे समय तक लिप्त रहे, जिससे उनका तेज क्षीण हो गया पाराशर मुनि नदी पार करते हुए नाव में नाविक की कन्या पर आसक्त हो गए उनके मन में कामवासना आंधी और तूफान की तरह आई और नाव में ही उन्होंने अपनी ज्वार-भाटा की तरह उछलती तरंगों को शांत किया ।इतिहास में जहां-जहां ऐसे उदाहरणो को दोहराया है वहां तबाही,बर्बादी और खून खराबी के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं दिया
हिंदू धर्म कहता है कि स्त्री को भोग की सामग्री मात्र मत समझो जीवन की पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसे अपना जीवनसाथी मानो ।सृष्टि रचना के लिए प्रभुलीला का माध्यम समझो, यदि उसे सावधानी से न बरतोगे तो, वह नरक की खान बन जाएगी।।
*****जयश्री महाकाल****
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।। मेरी भक्ति गुरु की शक्ति।।
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