||सिद्ध साधक अवस्था ||वैज्ञानिक विशलेषण||
प्रत्यक्ष का ज्ञान हमको चक्क्षु आदि इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है! किन्तु परोक्ष का ज्ञान समझा जाता है! देखा नही जाता है!
विज्ञान मतलब ज्ञान+विश्लेश्न+विवेचन=विज्ञान!
ज्ञान तो पहले से ही उपलब्ध है!बस उसे समझना,परखना,कसौटि में कसना और यदि ज्ञान सही निकला तो उसे प्रशस्ति पत्र प्रदान करना ! कि यह ज्ञान सत्य है और ज्ञानी भी !यहि विज्ञान है!! और यदि उनको न समझ आये तो उसे ढोंग कहना,छल कहना !
विज्ञान की खोज मे ऎसा कोई क्षेत्र नही जहाँ विज्ञान की पहल नही हो!विज्ञान का ही एक क्षेत्र है “मनोविज्ञान” ! मतलब मन के विचारो का ज्ञान ! मन के कार्य प्रणालि का विज्ञान !! आइये इसे समझने का प्रयास करे।
मनोविज्ञान के अनुसार मस्तिष्क के दों भाग होते है !!
1.तार्किक मस्तिष्क (Objective Mind)
2.चैतिक मस्तिष्क (Subjective Mind)
किन्तु ये दोनो भी “मन” नही है “मन” तो इन दोनो पे सवार होता है! जैसे सारथी कृष्ण रथ पे सवार हो कर पुरे रथ के साथ अपने शर्णार्थि अर्जुन को भी नियंत्रित करते है उसी प्रकार “मन” दोनो मस्तिष्क का नियंत्रक होता है! ये मन ही हम होते है !ये मन ही “मै” होता है!इस मन के बहुत से नाम है कोई राम कहता है कोई श्याम ,कोई इसे भगवान कह कर पुजता है तो कोई शैतान कह कर!यही मन आत्माराम है !! यही आदिगुरु भी है !!
1.तार्किक मस्तिष्क (Objective Mind) तार्किक मस्तिषक का कार्य बहिर्मुखि होता है यह मस्तिष्क हमेशा सवाल पुछता रहता है ! इस मस्तिषक के पांच सलाहकार है आँख,नाक,कान,मुख(जिव्हा)एवं त्वचा। जो इस मस्तिष्क को नित्य हर पल जानकारी देते रहते है !!और यह इन इन्द्रियों की अनुभुतियों के अनुसार प्राप्त संकेतो के अनुसार निर्णय लेता है !यदि इन्द्रियों से गलत संकेत प्राप्त होने पर ये भ्रम का शिकार हो जाता है! ये पांच इन्द्रियों का समुह है जो अपने स्तर पर हमेशा इसे जानकारी प्रदान करते रहते है ! हमारे शारिरिक अवस्थाओ एवं आवश्यक्ताओं की पुर्ति हेतु ही इस मस्तिष्क की सृष्टि हुई है ! इसका जन्म हुआ है!! इसका कार्य है प्राकृतिक साधनो द्वार मनुष्य को ईच्छापुर्ति का उपाय बताना और इसका मार्ग प्रशस्त करना ! इसका सबसे बडा शस्त्र है तर्क करना एवं तर्क द्वार बाहरी उलझनो को सुलझाना ! जिसे शरिर शास्त्र में मुख्य मस्तिष्क (Cerebrum) कहा जाता है !
किन्तु अध्यात्मिक अनुभुतियो के दौरान मैने इसे ही “शिवा” कहा है !
यह मस्तिष्क स्त्रैण है एवं यह हमेशा असुरक्षित रहता है! तन्त्र में मस्तक,शिश को ही “”कैलाश” कहा जाता है,बाहरी कैलाश से इसका कोई संबंध नही है !! इस कैलाश के शिर्ष पर श्री शिव महादेव के साथ शिवा को सवाल पुछते इस दृ्ष्य को कल्पनाकार ने चित्रों मे उकेरा था ! इसका कार्य है गुस्सा होना,बार-बार रुठना और अपनी ईच्छा की पुर्ति हेतु तत्पर रहना !यदि इसकी इच्छानुसार कार्य नही हो तो ये उब जाती और सो जाती है !!स्वादिष्ट भोजन मे,भोग में एवं बातो को गुप्त न रखते हुए ,इधर-उधर फैलाने में इसकी रूची होती है!हर बात पे शिकायत करना एवं समाधान प्राप्त करना ये इसका मुख्य कार्य है!इसका संबंध सीधे शिव से होता है किन्तु शिव का सम्बन्ध किसी से नही होता !
2.चैतिक मस्तिष्क (Subjective Mind)
से ठीक विपरीत तार्किक मस्तिष्क (Objective Mind) का इन्द्रियों से कोई संबंध नहि होता ! इसका कार्य मात्र ज्ञान प्राप्ति का साधन करना ,शिवा की बात सुनना एवं अन्तर्मुख होने के कारण शिवा के प्रशनो का उत्तर देना है सदैव अंतरमुख वृत्ति बनाये रखना इसका मुख्य गुण होता है! इसमे मन की भवनाये एवं स्मृतियों का भंडार होता है जिसे हमने काल कालन्तर से सहज कर रखा होता है ! इसकी कार्य प्रणाली सब से पृथक होती है! जब तार्किक मस्तिष्क(शिवा) का कार्य बंद हो जाता है तब यह स्वप्न अथवा बेहोशी में या फिर किसि भी प्रकार से बेहोशी उतपन्न हो जाये तब यह मस्तिष्क अपने आप को अच्छे से एवं पुर्ण रुप से दुसरे पे व्यक्त किया करता है!!ये कठोर है,पुरुष रुप है,शक्तिशालि है !!इसे किसी भी वस्तु मे रुचि नही होति ! ना स्वादिष्ट भोजन मे ,न भोग मे !किन्तु आवश्यक्तानुसार तार्किक मस्तिष्क( शिवा) की इच्छापुर्ति हेतु ये भोगी हो जाता है!! पहले आदिकाल मे इस मस्तिषक का ही सम्राज्य हुआ करता था !! आदिकाल में भोजन,भोग एवं सुरक्षा की भावना ही मुल होती थी !
इस मस्तिष्क के कार्य आश्चर्य जनक एव निराले हुआ करते है! यह बिना आँखो को खोले देख सकता है! यह अपने मन की वृत्तियो को ,भावनाओ को दूर तक भेजने मे सक्षम होता है !और दूर से ही यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेना इसका मुख्य चमत्कार है ! ये दूसरे के मन के भेद को आसानी से जान लेता है! यहि छटी इन्द्रि भी है! परोक्षज्ञान प्राप्त कर लेना इसके लिये इतना ही सुगम है जितना की तार्किक मस्तिषक(शिवा) को प्रत्यक्ष का ज्ञान प्राप्त करना!! इसे ही परोक्ष दर्शन कहते है ! यहि “महादेव” है “शिव” है यहि “पराविध्या” है यहि सर्वविध्या है !! तन्त्र मे यहि मुख्य “गुरु” है !! इन तक पहुचाना ही लौकीक गुरु का कार्य होता है !!सारी चमत्कारी शक्तियां इनही के पास होती है !! मेरे कहने का आशय ये है की,लौकीक सृष्टि की शक्तियाँ तार्किक मस्तिष्क( शिवा) के पास होती है एवं अदृष्य,रहस्यमयी एवं प्रालौकीक शक्तियां चैतिक मस्तिष्क( शिव) के पास होती है ! और आवश्यकता अनुसार दोनो अपनी अपनी शक्तियों का आदन-प्रदान करते रहते है!!
प्रत्यक्ष का ज्ञान हमको चक्क्षु आदि इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है! किन्तु परोक्ष का ज्ञान समझा जाता है ! देखा नही जाता है! यह स्थुल इन्द्रियों द्वारा नही होता परन्तु शक्तियो के विकसित हो जाने पर,मस्तिष्क की शक्तियाँ भी ,जिनसे इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर लेती है! इन शक्तियों को उचित रुप मे,सुक्ष्म या असलि इन्द्रियाँ भी कहा जा सकता है! वे विकसित हो जाती है और उन्से “परोक्ष” का ज्ञान आसानी से प्राप्त किया जा सकता है !!
ज्ञान तो मात्र तरंगो द्वारा प्राप्त किया जा सकता है,जिसे अध्यात्मिक भाषा मे “अनुभुति” कहा जाता है !! हर किसी की अनुभुति किसी अन्य से भिन्न हो सकती है !कोई पास कि तरंगो को ग्रहण करने मे सक्षम होता है तो कोई दूर की अनुभुतियो को ग्रहण कर लेता है!यह अभयास का विषय होता है !जितना अभ्यास होगा उतनी ही शक्ति मे उन्नति होति जाती है इस लिये ऋषियों ने अभयास को धार की संज्ञा दी है!
इन दोनो मस्तिष्क की कार्य प्रणाली एक दुसरे से भिन्न होति है”शिवा” प्रकृ्ति है,प्रवृत्ति है,चल है एवं तामसिक प्रवृ्त्ति है!इसिलिये इनहे सिंह पे सवार दिखाया जाता है जो की मात्र एक रुपक चित्र होता है समझाने के लिये !! इसके विपरित “शिव”शांत है तार्किक नही है,सिधा ग्रहण करते है!अनकी प्रवृत्ति भोली है अत: इनहे नंदी बैल की सवारी पे रुपक द्वार समझाया गया है जो की सीधा साधा एवं आदेशो का पालन करने वाला होता है।
ये दोनो मस्तिष्क “शिव+शिवा” दोनो हर समय एक साथ काम नही करते ! जब “शिवा” जागती है तब”शिव” सोये रहते है इस रुपक को श्री महाकाली के चित्र मे दर्शाया जाता है ! जहा शिव शव हो जाते है इसके विपरित जब शिव जागते है तब शिवा शांत हो शिव् के चरणो को दबाती है !!जब कुछ पल के लिये दोनो मस्तिषक कार्य करते है एक साथ तो उस अवस्था को शिव और शिवा का संवाद कहते है !इस अवस्था में नाक के दोनों छिद्रो से स्वास्-प्रश्वास प्रारम्भ हो जाता है इसे ही सुषम्ना भी कहा जाता है।
इस अवस्था मे पुरे धर्मग्रंथो,शास्त्रों एवं वेदो का ज्ञान प्राप्त किया गया है ! इसे ही तन्त्र में अर्धनारिश्वर के नाम से जाना जाता है किन्तु ये दोनो साथ साथ कब काम करते है? ये गुप्त विष्य है! बस मै इतनी ही जानकारी देना अपना कर्तव्य समझता हुँ कि जब बाये नाक के छिद्र से वायु का प्रभाव चल रहा हो तो शिव जागृत होते है और जब दाये नाक के छिद्र से वायु का प्रवाह चल रहा हो तो शिवा जागृत होती है ! जब वायु बाये नाक के छिद्र चल रही हो तो करिब डेठ घंटे बाद वह अपने आप दाये नाक से प्रवाहित होने लगती है यह प्राकृतिक नियन है! जब वायु का क्रम बाये से दाये या दाये से बाये बदल रहा हो तो कुछ क्षण के लिये दोनो नाक के छिद्र चलने लगते है यहि “शिव सुत्र” है! इस समय मांगी गई इच्छये पुर्ण होति है !!यदि किसी विधि द्वारा इस परिवर्तन काल पे मन स्थिर हो जाने से ये अवस्था बनी रहती है यह वह समय होता है जब न दिन होता है न रात्रि,न स्त्री न पुरुष !योगी इसी अवस्था में मन को केंद्रित करने का प्रयास करते है।इस अवस्था में अपने आप दृष्टि भृकुटियों के मध्य स्थिर हो जाती है !!यही वह अवस्था है जब साधक के नियंत्रण मे “शिव एव शिवा” दोनो हो जाते है और त्रिलोकी वश मे होती है !इसी काल के बारे मे हमारे बुजुर्गो ने कहा है कि दिन मे कभी कभी बोली बाते सत्य हो जाती है और जिव्हा पे सरस्वति विराजमान हो जाती है यह वही काल है!!
शिवा के शांत होने पर शिव जागृत होते है शिव ही परोक्ष है! आत्माओ,भुत-प्रेत को बुलाना,उन्से मन मानी बाते पुछना ,यह परोक्ष दर्शन का विष्य है पश्चिम मे एवं भारत मे भी आत्माओ को साक्षात्कार हेतु बुलाना एवं उनसे प्रश्नोत्तर करने की प्रथा पुरानी है यह परोक्ष दर्षन का ही चमत्कार है ! इसी कारन वश शिव को भुत –प्रेतो का संगी शास्त्रों मे बताया गया है !! किन्तु यह चमत्कार नही मात्र परोक्ष ही है और कुछ नही !!
अभी तक हम थोडा बहुत ज्ञान पहले मस्तिष्कक(शिवा) का रखते है जिसे महामाया भी कहते है और ठगनी भी कहते है जो इच्छा शक्ति का केन्द्र है जिसके द्वारा निश्चय करके कार्य किये जाते है! परन्तु दुसरे मस्तिषक(शिव) के कार्यो से जिसका संबंध अनिश्चित प्रभाव के अंकित करने से है आम तौर से हम इस तरफ से अनभिज्ञ होते है हमारे अंत:करणो में चित्त एक ऎसा स्थान है जिसमे हमारे जन्म जन्मांतर के कार्यों,संस्कारो,वास्नाओ एवं प्राप्त किये हुये ज्ञान की समृति अंकित होती है! जिससे हम अनभिज्ञ होते है पुर्व जन्म मे हम पेड-पौधे,जिव-जन्तु,स्त्री-पुरुष या अन्य जिव का जिवन जी चुके होते है उनकी यादे या उनकी समृतिया दुसरे मस्तिषक के भंडार मे उपलब्ध होती है !परन्तु समय,माहौल ,उपकरण उपस्थित होने पर चित्त अपनी वास्ना और स्मृति के आपार भंडार से उसी प्रकार के विचार अंत: करण में उतपन्न कर दिया करता है उन विचारो से केवल स्थुल दृष्टि रखने के कारण हम अनभिज्ञ होते है इसलिये उन्को अपने ही मस्तिष्क से निकाला हुआ न समझ कर किसी ना किसी आत्मा,रुह आदि बाहरी ऊर्जा को उसका कारण ठहराने की कोशिश करते है !!
इसिलिये शास्त्रों मे गुरु की महिमा शिव,ब्रह्मा,विष्णु,माता-पिता से उपर बताई गई है! क्योकि गुरु ही सही समायोजन करने की विधि बताते है ! याद रखे शिव और शिवा भी आपके वश मे हो सकते है !!यही साधना की शक्ति है जहा शिव भक्तों पे कृपा करते है !! यही “सिद्ध साधक” की अवस्था होती है जिसके नियंत्रण में शिव और शक्ति दोनो होते है! जहां सभी देवि एवं देवता नत मस्तक होते है जब तक आप श्वास-प्रशवास लेते रहेगे इन देवताओ को आहुतिया मिलती रहेगी किन्तु यहा श्वास ही न लिया जाये तो................................??
(व्यक्तिगत अनुभूति एवं विचार )
******राहुलनाथ********
{आपका मित्र,लेखक,सालाहकार एवम् ज्योतिष}
भिलाई,छत्तीसगढ़+917489716795,+919827374074(whatsapp)
फेसबुक परिचय:-https://m.facebook.com/yogirahulnathosgy/
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।। श्री गुरुचरणेभ्यो नमः।।
मच्छिन्द्र गोरक्ष गहिनी जालंदर कानिफा।
भर्तरी रेवण वटसिद्ध चरपटी नाथा ।।
वंदन नवनाथ को,सिद्ध करो मेरे लेखो को।
गुरु दो आशिष,हरे भक्तों के संकट को।।
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