।।मृत्यु,समाधि और जीवात्मा ।।
"मृत्यु केवल इन्द्रियों के स्वामी का शरीर से निकल जाना मात्र है"
जो व्यक्ति नित्य सोने से पहले या प्रातः उठते ही प्रार्थना का प्रयोग करते है या नित्य ध्यान करते है,उन्हें अपनी मृत्यु के पहले,मृत्यु के समय का ज्ञान हो जाता है।यही निर्मल एवं शांत चित्त के व्यक्तियो के साथ भी हो सकता है।जैसा की मैंने सूना है मृत्यु के 6 महीने पहले से मृत्यु की छाया पड़ने लगती है एवं मृत्यु के एक दो दिन या पाँच-छः घंटे पूर्व,इसका स्पस्ट आभास होने लगता है।मृत्यु के पहले मनुष्य को विशेष अनुभूतियाँ होती है और इन अनुभूतियों की पहले से जानकारी ना होने के कारण 80 प्रतिशत मनुष्य की मृत्यु भयभीत होने से,बेहोशी की अवस्था में हो जाती है उन्हें उनके मरने का ज्ञान ही नहीं हो पाता है।उन्हें पता ही नहीं चल पाता की उसकी मृत्यु हो गई है और वो शरीर से अलग हो चुका है।ठीक इसके विपरीत समाधि की अवस्था है इसमें भी मृत्यु होती है किन्तु इसमें साधक को मृत्यु से भय नहीं होता।समाधि होश में मृत्यु है।समाधि कोई आकास्मिक घटना नहीं है समाधि में एक बार मृत्यु नहीं है समाधि नाम हैं होष में रह कर शरीर के हर चक्रों-कोशो को मारते हुए अंत में सहस्त्रार (शीर्ष में उपस्थित चंद्र स्थान,जो बाल्यावस्था में पोला होता है) से प्राणों को बाहर निकाल देने का।ऐसी अवस्था को प्राप्त करने के लिए जीवन भर साधना एवं गहरी एकाग्रता की आवश्यकता होती है।इस एक पल की मृत्यु के लिए साधक को लगातार मृत्यु की साधना करनी होती है।एक बार की समाधि के लिए साधक को रोज रोज मारना होता है।
युवावस्था में या दुर्घटना वष मरने पर मनुष्य को मृत्यु का अनुभव होता है किन्तु 90 वर्ष की अवस्था में मृत्यु होने पे ये अनुभव नहीं होता क्योकि इस आयु तक अनुभव कराने वाले कोशो की पहली ही मृत्यु हो जाती है यदा-कदा ही इस आयु में किसी को इस क्षण का अनुभव हो पाता हो।सामान्यतः देखा जाता है की स्वस्थ व्यक्ति पहली ही बिमारी ने मर जाता है वही 90 वर्ष तक जीवित रहने वाले की मृत्यु भी मुश्किल ही हो जाती है जिसकी वासना जीतनी तीव्र होगी और जीवन भोगने की इच्छा जीतनी तीव्र होगी ,उसकी आयु भी उतनी लंबी होगी।मन में जितने जल्दी वैराग्य पैदा होगा,जितने जल्दी कामनाए समाप्त हो जायेगी। उतने ही जल्दी मुक्ति प्राप्त होती है
दुर्घटना वष जिसकी मृत्यु होती है वह इस आकस्मिक घटना के कारण भयभीत नहीं होता और वह भी अपनी मृत्यु का साक्षी बन जाता है।आकस्मिक दुर्घटना में मृत हुए व्यक्ति के भविष्य की योजनाये एवं कामनाये समाप्त नहीं हो पाती जिससे की वह बिना देह के अपनी कामनाओ को पूर्ण करने हेतु भटकता रह जाता है।ये कामनाये इस मृतक को नए जीवन की ओर अग्रसर नहीं होने देती।स्वाभाविक मृत्यु एवं दुर्घटना में मृत्यु में भेद है,सामान्यः मृत्यु से पहले धीरे धीरे शरिर के सारे कोष एवं केंद्र मरते है।उसके जीवनकाल में किये गए कर्म चित्र की भाँती आँखों के सामने घूमने लगते है जिससे सामान्य व्यक्ति धीरे धीरे पहले से ही मृत्यु के लिए तैयार होता रहता है एवं अंत में प्राण नाभि पे सिकुड़कर एकत्रित हो जाता है फिर जो उसे मार्ग मिलता है उस मार्ग से निकल जाता है।
दुर्घटना में तो मानो ऐसा है जैसा की अचानक मटके को फोड़ दिया गया हो,जैसे पौधे को अचानक धरती से उखाड़ दिया गया हो,जैसे अचानक काल के हाथो बली चढ़ गई हो।
मृत्यु की यात्रा में मृतात्मा के साथ मृतात्मा की स्मृति जाती है किसी की स्मृति 3 दिन तक साथ रहती है किसी की 13 दिन तक।इसी कारण हिन्दू धर्म में तेरहवी का संस्कार होता है जिससे की मृतात्मा का अपनी पुरानी स्मृतियों का त्याग हो और वह नव जीवन प्राप्त कर सके।
आत्मा के शरीर से निकलने पर भी उसके शरीर से 3-4 दिन तक ऊर्जा का निष्कासन होता रहता है यह उसी प्रकार है जैसे वृक्षो के साथ होता है वे कटने के बाद भी मृत नहीं होते एवं कटने के बाद भी उसे 3-4 दिनों के भीतर धरती में रोप दिया जाए एवं उसकी देख-रेख की जाए तो वह पुनः प्राणवान हो जाता है।यहाँ इस विषय को वैज्ञानिक रूप से समझने का प्रयास करते है ।
वैज्ञानिक भाषा में मृत्यु दो प्रकार से संभव है प्रथम ह्रदय की धड़कन बंद होने से डॉक्टर इसे "क्लिकनील डैथ "(शारीरिक मृत्यु)कहते है और दूसरी मृत्यु जिसमे शरीर की सारी ऊर्जा बाहर निकल जाती है उसे "बायोलॉजिकल डैथ" (जैविक मृत्यु) कहते है।इसी सिद्धांत के अनुसार "सिद्धसाधक" मरने के बाद भी जैविक मृत्यु के पूर्व किसी विशेष विधि से यदि आत्मा को शरीर में प्रवेश करा दे तो वह पुनः जीवित हो सकता है।इसे ही परकाया प्रवेश द्वारा शरीर में प्रवेश करना कहते है।धर्म ग्रंथो के अनुसार इसी कारण मृत्यु के बाद शरीर को ज्यादा समय तक नहीं रखा जाता क्योकि ऐसी अवस्था में उसकी मृत्यु जैविक नहीं होती और हो सकता है की मृतक के शरीर में कोई और ईथर योनिया अपना घर बना ले,क्योकि मालिक हिन् गृह पे अक्सर आतातायी कब्जा कर लेते है।ऐसा बहुत कम अपवाद स्वरूप ही होता है की मृत शरीर में वही जीवात्मा वापस आ सके,क्योकि मृत्यु के बाद बिस्फोट के कारण जीवात्मा शरीर से बहुत दूर चला जाता है और उसके शरीर के पास आने से पहले हो सकता है कोई और योनि इस शरीर में प्रवेश कर जाए।
सामान्यतः शरीर की आयु निश्चित होती है किन्तु सही आहार-विहार एवं स्वास्थ नियमो का पालन कर कुछ आयु बढाई जा सकती है।इसके बावजूद जिस दिन जीवात्मा को ये महसूस होता है की ये शरिर काम का नहीं रहा उस दिन ये जीवात्मा शरीर का त्याग कर देता है।आप ज्ञानी बने ,तेजस्वी बने ,ध्यानी बने,या सामान्य जीवन यापन करने वाला गृहस्त बने हर अवस्था में मृत्यु ही सत्य है शास्वत है।
कभी कभी लगता है सुख भोगो या दुःख दोनों ही काल कोठरी है इससे क्या फर्क पड़ता हैं कि कोठरी पत्थर की है या स्वर्ण की।दोनों अवस्था में भी इन कोठरियों को भी यही छोड़ कर जाना है।
अंत में यही कहना चाहूँगा मित्रो की हम जो जीवन जी रहे है ये कोई वरदान या दैविक योजना नहीं है ना ही ये कोई अकास्मिक घटना है ये जीवन हमें अपने पूर्व जन्म के कर्मो के अनुसार ही सुख या दुःख भोगने के लिए प्राप्त हुआ है।यदि आप ज्यादा पुण्य करते है तो भी पुण्यो से प्राप्त सुखो को भोगने के लिए शरीर धारण करना होगा,यदि हम पाप करते है तो भी हमें पुनः दुखो के भोग के लिए शरीर धारण करना होगा।उचित तो यही है की हम सहजावस्था को ग्रहण करे एवं अपने कार्मिक भावो पे तटस्त रहे है।ना अच्छा करे ना बुरा करे,मात्र सब को ग्रहण करे फिर वह सुख के रूप में हो दुःख के रूप में।।
{व्यक्तिगत अनुभूति एवं विचार }
🚩🚩🚩जयश्रीमहाँकाल 🚩🚩🚩
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।। श्री गुरुचरणेभ्यो नमः।।
मच्छिन्द्र गोरक्ष गहिनी जालंदर कानिफा,भर्तरी रेवण वटसिद्ध चरपटी नाथा ।।
वंदन नवनाथ को,सिद्ध करो मेरे लेखो को,गुरु दो आशिष,हरे भक्तों के संकट को।।
"राहुलनाथ"
{आपका मित्र,सालाहकार एवम् ज्योतिष}
भिलाई,छत्तीसगढ़+917489716795,+919827374074(whatsapp)
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चेतावनी-इस लेख में लिखे गए सभी नियम,सूत्र,तथ्य हमारी निजी अनुभूतियो के स्तर पर है।विश्व में कही भी,किसी भी भाषा में ये सभी इस रूप में उपलब्ध नहीं है।अत:इस लेख में वर्णित सभी नियम ,सूत्र एवं व्याख्याए हमारी मौलिक संपत्ति है।हमारे लेखो को पढने के बाद पाठक उसे माने ,इसके लिए वे बाध्य नहीं है।इसकी किसी भी प्रकार से चोरी,कॉप़ी-पेस्टिंग आदि में शोध का अतिलंघन समझा जाएगा।हमारे लेखो को पढने के बाद पाठक उसे माने ,इसके लिए वे बाध्य नहीं है।हमारे हर लेख का उद्देश्य केवल प्रस्तुत विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करना है लेख को पढ़कर कोई भी प्रयोग बिना मार्ग दर्शन के न करे ।क्योकि हमारा उद्देश्य केवल विषय से परिचित कराना है। किसी गंभीर रोग अथवा उसके निदान की दशा में अपने योग्य विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श ले। साधको को चेतावनी दी जाती है की वे बिना गुरु के निर्देशन के साधनाए ना करे। अन्यथा मानसिक हानि भी संभव है। यह केवल सुचना ही नहीं चेतावनी भी है।
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