शनिवार, 19 मार्च 2022

भोजन कैसे ग्रहण करे

भोजन कैसे ग्रहण करे
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दोनों हाथ दोनों पैर और मुख इन 5 अंगों को धोकर भोजन करना चाहिए ऐसा करने वाला मनुष्य दीर्घ जीवी होता है।

गीले पैरों वाला होकर भोजन करें पर गीले पैरों से सोए नहीं,गीले पैरों वाला होकर भोजन करने वाला मनुष्य लंबी आयु को प्राप्त करता है।

सूखे पैर और अंधेरे में भोजन कदापि नहीं करना चाहिए।

शास्त्र में मनुष्य के लिए प्रातः काल और सायंकाल दो ही समय भोजन करने का विधान है बीच में भोजन करने की विधि नहीं देखी गई है,जो इस नियम का पालन करता है उसे उपवास करने का फल प्राप्त होता है।

मनुष्य की एक बार भोजन देवताओं का भाग दूसरी बार का भोजन मनुष्य का भाग,तीसरी बार का भोजन प्रेतों का भाग और चौथी बार का भोजन राक्षसों का भाग होता है।

संध्या काल में भोजन नहीं करना चाहिए।

गृहस्थी को चाहिए कि वह पहले देवताओंको,ऋषियोंको मनुष्यको(अतिथि) को पितरों को और घर के देवताओं का पूजन कर के पीछे स्वयं भोजन करें।

भोजन सदा पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके करना चाहिए पूर्व की ओर मुख करके खाने से मनुष्य की आयु बढ़ती है दक्षिण दिशा की ओर मुख करके खानेसे प्रेतत्वतत्व की प्राप्ति होती है पश्चिम की ओर मुख करके खाने से मनुष्य रोगी होता है और उत्तर की ओर मुख करके जाने से आयु तथा धन की प्राप्ति होती है।

सदा एकांत में ही भोजन करना चाहिए।

ईख, जल,दूध,कंद,तांबूल,फल और औषध इनका सेवन स्नान किए बिना भी कर सकते हैं इनका सेवन करने के बाद भी स्नान दान यज्ञ तर्पण आदि क्रियाएं कर सकते हैं।

एक ही वस्त्र पहनकर भोजन नहीं करना चाहिए सारे शरीर को कपड़े से ढक कर भी भोजन न करें जो मनुष्य सिरको ढक कर खाता है दक्षिण दिशा की ओर मुख करके खाता है जूते पहनकर खाता है और पैर धोए बिना खाता है उसके अन्न को प्रेत खाते हैं तथा उसका वह सारा भोजन असुर समझना चाहिए।

भोजन की वस्तु गोद में रखकर नहीं खानी चाहिए,

टूटे-फूटे हुए बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए,टूटे हुए बर्तन में खाने वाला चांद्रायण व्रत करने से शुद्ध होता है।

शैया पर बैठकर भोजन ना करें तथा जल ना पिये। हाथ में लेकर भोजन न करें और आसन पर थाली रख कर भोजन ना करें।
भविष्य में इसी विषय पे जानकारी प्रेषित की जाएगी जो पूर्णतः शास्त्रोक्त होगी।'क्या करें,क्या ना करें?'१३८१आचार-संहिता, गीताप्रेस,गोरखपुर

लेखन-सम्पादन-संकलन
☯️राहुलनाथ™ 🖋️....
ज्योतिषाचार्य,भिलाई'३६गढ़,भारत

गुरु-शिष्य के लिए उपयोगी मार्गदर्शन

गुरु-शिष्य के लिए उपयोगी मार्गदर्शन
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१.गुरु को चाहिए कि वह शिष्य को पुत्र की तरह मांनता हुआ और उसकी उन्नति की इच्छा करता हुआ सभी धर्मों में कुछ भी गुप्त न रखते हुए उसे विद्या प्रदान करें ।

२.गुरु आपत्तिकाल के सिवाय अन्य समय में शिष्य के शिक्षा अध्ययन में पहुंचा कर उसे अपने किसी कार्य में ना लगाएं।

३.गुरु को बहुत विचार करके ही किसी को शिष्य बनाना चाहिए अन्यथा शिष्य के दोष के कारण गुरु नरक में जा सकता है।

४.जिस प्रकार मंत्री का पाप राजा को और स्त्री का पति को प्राप्त होता है उसी प्रकार निश्चय ही शिष्य का पाप गुरु को प्राप्त होता है।

५.भ्रूण हत्या करने वाला,अपना अन्न खाने वाले को,व्यभिचारीणी स्त्री पति को,शिष्य गुरु को, यजमान गुरु को और चोर राजा को अपना अपना पाप दे देते हैं

६.एकमात्र पति ही स्त्रियों का गुरु है अतः स्त्री को पति के सिवाय किसी को भी गुरु नहीं बनाना चाहिए।

७.शिष्य को गुरु के साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए परंतु वह
बैलगाड़ी,घोड़ागाड़ी,ऊंठगाड़ी,महल की छत, कुशकी, चटाई, शिलाखंड और नाव पर गुरुके साथ बैठ सकता है।

८.शिष्य को चाहिए कि जिस आसन पर गुरु बैठते हो उस पर वह न बैठे और  जिस शैय्या पर वे सोते हो उस पर न सोये।

९.गुरु के सामने किसी वस्तु का सहारा लगाकर अथवा पैरों को फैलाकर नहीं बैठना चाहिए।

१०.शिष्य को चाहिए कि वह गुरु को अपेक्षा अपने अन्न, वस्त्र तथा वेश को हीन(कम) रखे।वह गुरु के सो कर उठने से पहले उठे और उनके सोने के बाद सोए।
११.क्रुद्ध  गुरु के मुख पर दृष्टि नहीं डालनी चाहिए।

१२. शिष्य को चाहिए कि वह परोक्ष में भी गुरु के नाम का उच्चारण न करें और गुरु के गति भाषण आदि की नकल न करें ।

१३.जो मनुष्य उदासीन एवं दुराचारी गुरु की मंत्र दीक्षा ग्रहण करता है वह निश्चय ही धनहीन हो जाता है।

१४.जो दृष्ट संकल्प वाले निषिद्ध( दुराचारी) गुरु का शिष्य बनता है,उसे महाप्रलयपर्यन तक उसे पुनः मनुष्य शरीर नहीं मिलता 

१५.यदि गुरु भी घमंड में आकर कर्तव्य और अकर्त्तव्य का ज्ञान  खो बैठे और गलत रास्ते पर चलने लगे तो उसका तो त्याग कर देना चाहिए।

१६.ज्ञानरहित और मिथ्यावादी और भ्रम पैदा करने वाले ग़ुरूका त्याग कर देना चाहिए क्योंकि जो खुद शांति नहीं प्राप्त कर  सका वह दूसरों को शांति कैसे देगा।

१७. जिसके पास एक वर्ष तक रहने पर भी शिष्य को थोड़ा से भी आनंद और प्रबोध की उपलब्धि न हो तो शिष्य उसे छोड़कर दूसरे गुरु का आश्रय ले।
भविष्य में इसी विषय पे जानकारी प्रेषित की जाएगी जो पूर्णतः शास्त्रोक्त होगी।'क्या करें,क्या ना करें?'१३८१आचार-संहिता, गीताप्रेस,गोरखपुर
🕉️🙏🏻🚩जयश्री माहाँकाल 🚩🙏🏻🕉️

लेखन-सम्पादन-संकलन
☯️राहुलनाथ™ 🖋️....
ज्योतिषाचार्य,भिलाई'३६गढ़,भारत

स्मशान और साधक का वैराग्य

स्मशान और साधक का वैराग्य


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पुरानान्ते,भोजनान्ते, मैथुनान्ते,स्मशानान्ते च या मते:।
सा मते: सर्वदा चेत् स्यात्  को न मुच्यत बंधनात नरो नारायणो भवेत्।।

पुराणों को सुनने के बाद अंत मे मन की गति में परिवर्तन हो जाता है,भोजन ग्रहण करने के बाद अंत मे पेट भर जाने से भोजन से मन हट जाता है।मैथुन की प्रबल इच्छा रखने वाले जीव-मानवो का मैथुन के बाद अचानक मन हट जाती है और इसी प्रकार स्मशान में किसी का दाह संस्कार करने के बाद इस संसार से कुछ समय के लिए मन मे संसार के लिए वैराग्य पैदा हो जाता है और मनुष्य अमन हो जाता है।इस समय जैसी बुद्धि हो जाती है अगर ऐसी बुद्धि सदा के लिए हो जाये तो,ऐसा कौन है जो बंधनो से मुक्त हो नारायण नही बन सकता।
स्मशान एक ऐसा स्थान है जहां प्रवेश करते ही संसार की नश्वरता का आभास होता है,मन मे संसार के लिए वैराग्य पैदा हो जाता है और मनुष्य अमन हो जाता है।स्मशान में जाकर साधना करने का यही अभिप्राय होता है कि वैरागय की भवाना का उदय हो और भय का सर्वनाश हो।किन्तु आज का साधक घर मे रहकर पुस्तकों को पढ़कर सिद्धि प्राप्त करना चाहता है सिद्ध अघोरी या तांत्रिक बनना चाहता है।साधको को यदि साधना सिद्धि में सफलता पानी है तो साधक को कठोर परिश्रम करना ही होगा,गुरुधाम,शिवालय या स्मशान जाना ही होगा,इन स्थानों से रिश्ता-नाता जोड़ना ही होगा।
🕉️🙏🏻🚩जयश्री माहाँकाल 🚩🙏🏻🕉️
लेखन-सम्पादन-संकलन
☯️राहुलनाथ™ 🖋️....
ज्योतिषाचार्य,भिलाई'३६गढ़,भारत